Book Title: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Author(s): Ganesh Lalwani
Publisher: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 436
________________ आत्मज्ञानी श्रीमद् राजचंद्र - नलिनाक्ष पंड्या वल्लभ विद्यानगर, गुजरात उन्नीसवीं शताब्दी में गुजरात में तीन महान पुरुष हुए थे । एक थे वैदिक परंपरा के उद्धारक महर्षि दयानंद सरस्वती, जिनका जन्म मोरबी रियासत के टंकारा गाँव में औदीच्य ब्राह्मण परिवार में हुआ था। दूसरे थे भारत के राष्ट्रपिता विश्ववंद्य महात्मा गांधी, जो पोरबंदर के लब्ध-प्रतिष्ठ मोढ वणिक परिवार में पैदा हुए थे। तीसरे महापुरुष जो हुए वह थे मोरबी राज्य के ववाणिया ग्राम के रायचंद भाई मेहता, जो श्रीमद् राजचंद्र के नाम से सुप्रसिद्ध हुए । दयानंद ने धर्मोद्धार की दिशा दिखाई, गांधीजी हमें राष्ट्रोद्धार के मार्ग पर ले गये, और श्रीमद् राजचंद्र आत्मोद्धार के पथ-प्रदर्शक बने । श्रीमद् के आत्मनिष्ठ जीवन एवं चिंतन का उनके परिचय में आने वालों पर ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा था कि अपने अल्पायु में भी वह अनेक भक्त और अनुयायियों का समुदाय छोड़ गये थे, जिनके द्वारा स्थापित संस्थाएँ आज भी कई स्थानों पर उनके विचारों के प्रसार में प्रवृत्त हैं। ये स्मारक - संस्थाएँ ववाणिया, वडवा, खंभात, अगास, ईडर, राजकोट, उत्तरसंडा, नरोडा, नार, सुणाव, काविठा, भादरण, वसो, बोरसद, वटामण, धामण, सडोदरा, ( सभी गुजरात में), आहोर ( राजस्थान ), हंपी (कर्णाटक), बम्बई, देवलाली ( महाराष्ट्र ), इन्दौर ( म०प्र० ) और मोम्बासा ( केन्या, अफ्रीका ) में स्थित हैं । Jain Education International भक्ति और आध्यात्मिक प्रवृत्ति की ऐसी विरासत छोड़ जाने वाला यदि कोई संन्यासी होता तो इसमें नई बात नहीं थी, पर इस गुरु के बारे में आश्चर्य इस बात का है कि वह एक गृहस्थाश्रमी व्यापारी था और उसने केवल ३३ वर्ष की अल्पायु में ही अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी थी । श्रीमद् का जन्म सन् १८६७ में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था । वयस्क होने पर बम्बई में वे हीरेजवाहिरात के व्यापार में साझेदारी से जुड़े थे। अपने अंतिम एक-दो वर्षों को छोड़कर जीवन का अधिकतर समय उन्होंने व्यापार में ही बिताया था । तथापि आध्यात्मिक ज्ञान व सिद्धि के जिस उच्च स्तर तक वे पहुँच पाये थे इसका कारण उनकी अन्तःस्थ आध्यात्मिकता थी । सात वर्ष की आयु में उन्हें जातिस्मरण हुआ था । तभी से उनमें वैराग्य भाव उदय होने लगा था। उनकी बौद्धिक क्षमता भी असाधारण थी । १३ वर्ष की आयु में उन्होंने अष्टावधान का प्रयोग कर दिखाया था । इस क्षमता को निरन्तर विकसित करके वे शतावधानी बन सके थे। बम्बई में उन्होंने शतावधान के कुछ प्रयोग भी किये थे, जिन्हें आत्मसाधना में बाधक मानकर बाद में बंद किया था । यह श्रीमद् की ज्ञानपिपासा ही थी जिसने उनको वेद, वेदान्त, गीता, भागवत, कुरान, जेन्द अवेस्ता और जैन आगमों का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया था । इस प्रकार विविध धर्म धाराओं के ज्ञाता होने पर भी वे शास्त्रपंडित न बने रहकर आध्यात्मिक अनुभूति में विश्वास रखते थे । इसीलिए वे विचारधारा के वाद-विवाद को व्यर्थ मानते थे और आत्मदर्शन व आत्मप्रतीति पर बल देते थे । श्रीमद् के आत्मज्ञान से प्रभावित होने वालों में महात्मा गांधी भी थे । युवावस्था में जब उन्हें किसी आध्यात्मिक समस्या का सामना करना पड़ा था तब गांधी जी ने प्रत्यक्ष या पत्र के माध्यम से श्रीमद् से मार्गदर्शन प्राप्त किया था । इस तथ्य को स्वीकार करते हुए गांधीजी ने श्रीमद् राजचंद्र को अपना आध्यात्मिक गुरु बताया । यद्यपि श्रीमद् की भी उनमें सांप्रदायिक For Private & Personal Use Only निष्ठा जैन धर्म के प्रति थी, फिर संकीर्णता का नितांत अभाव था । [ ८७ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450