Book Title: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Author(s): Ganesh Lalwani
Publisher: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti

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Page 437
________________ इसका कारण उन्हें सभी प्रमुख धर्मों का अध्ययन होने के एषणाएं नहीं थीं। यदि कोई अभीप्सा थी तो वह साथ-साथ संभवतः यह भी था कि उनके पिता सनातन- आत्मदर्शन की थी, जैसा कि उनके एक पत्र से प्रकट धर्मी दशा श्रीमाली वणिक थे और माता जैनी थी। होता है : 'रात्रि और दिवस केवल परमार्थ का ही वास्तव में श्रीमद को उसी धार्मिकता में विश्वास था जो मनन रहता है। आहार भी वही है, निद्रा भी वही है, सांप्रदायिकता से परे हो। उन्होंने लिखा है : 'संसार में शयन भी वही है, स्वप्न भी वही है, भय भी वही है, भोग. मान्यता भेद के बंधनों से तत्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। भी वही है, परिग्रह भी वही है, चाल भी वही है, आसन सच्चा सुख व आनंद इनमें नहीं है।' कई प्रसंगों पर भी वही है। अधिक क्या कहें। अस्थि, मांस और मज्जा श्रीमद् ने वेदान्त, श्रीकृष्ण, जनक विदेही, शंकराचार्य, को एक ही रंग चढ़ा हुआ है। रोम मात्र जैसे उसी के वामदेव, शुकदेव, नारद भक्ति सूत्र, योग वासिष्ठ, जड़भरत, विचार में रत है, और इस कारण से न कुछ देखना भाता कबीर, मीरा, नरसिंह मेहता, सुंदरदास आदि के दृष्टान्त है, न कुछ संघना भाता है; न कुछ सुनना भाता है, न दिये हैं. जो उनकी असांप्रदायिक समदर्शिता के परिचायक कछ चखना भाता है और न ही स्पर्श करना भाता है। न हैं। वस्तुतः उनके विचारों में आध्यात्मिक विषयों के बोलने की चाह है, न मौन रहने की ; न बैठने की चाह है, बारे में मौलिक चिंतन पर आधारित सत्यान्वेषी दृष्टि न जगने की: न खाने की चाह है, न भखे रहने की : न दिखाई देती है। असंग की चाह है, न संग की; न लक्ष्मी की चाह है, न स्वयं आत्मोन्मुखी होने की वजह से जैसे-जैसे अपने अलक्ष्मी की; ऐसी स्थिति है। तथापि इसके प्रति कोई अनुभवों के प्रकाश में वे जीवन को समझते गये, श्रीमद् आशा या निराशा के भाव की अनुभूति नहीं होती।' उन विचारों को कागज पर या डायरी में लिखते गये। श्रीमद की आत्मानुभूति की उत्कंठा उनकी इन काव्ययदि कोई दूरस्थ व्यक्ति भी अपनी किसी समस्या का पंक्तियों में सुचारू रूप से अभिव्यक्त हुई हैं : • आध्यात्मिक समाधान चाहता तो वे पत्र के द्वारा मार्ग अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे, दर्शन देते थे। इसी कारण महात्मा गांधी के शब्दों में क्यारे थईशं बाह्यान्तर निग्रंथ जो? कहें तो उनकी लेखनी की यह असाधारणता है कि उन्होंने सर्व सम्बंधन बंधन तीक्ष्ण छेदीने, सिर्फ वही लिखा जो स्वयं अनुभव किया हो। उसमें कहीं विचरशुं कब महरपुरुषने पंथ जो ? कृत्रिमता नहीं है। दूसरों को प्रभावित करने के लिए उन्होंने एक पंक्ति भी लिखी हो ऐसा मैंने नहीं पाया ।' भक्ति को वे आत्मसाधना का श्रेष्ठ साधन मानते श्रीमद् द्वारा लिखित इन फुटकर नोट और पत्रों के थे : 'अनेक दृष्टि से विचार करने पर मैं इस दृढ़ निर्णय रूप में ही उनके अधिकतर विचार संग्रहित हैं। तदुपरांत पर पहुँचा हूँ कि भक्ति माग ही सर्वोपरि है ।' आत्मज्ञान उनकी तीन रचनाएँ 'मोक्षमाला', 'भावनाबोध' और के लिए उतना ही आवश्यक वे आत्म निष्ठों के सत्संग को 'आत्मसिद्धिशास्त्र' हैं। 'मोक्षमाला' में धार्मिक समस्याओं मानते थे। उनकी दृष्टि में सत्संग वह है जिससे आत्मको जैन दर्शन के आधार पर समझाया गया है. 'भावना- सिद्धि हो सके। उत्तम शास्त्र में निरंतर दत्तचित्त रहना बोध' में आत्मश्रेयार्थी के लिए उपयोगी मार्गदर्शन है. भी उनके मत से सत्संग ही है। तथा आत्म सिद्धिशास्त्र' में आत्मदर्शन विषयक विचारों को संसार व्यवहार के प्रति श्रीमद् निर्लिप्त थे : 'संसार के पद्य में समझाया गया है। चूंकि श्रीमद की मातृभाषा प्रति हमें परम उदासीन भाव है । यदि यह संसार सुवर्णका गुजराती थी, उनका समूचा साहित्य गुजराती भाषा में है। बन जाये तो भी हमारे लिए तृणवत रहेगा और केवल श्रीमद् की कृतियों में स्पष्ट रूप से झलकने वाला तत्त्व परमात्मा की विभूति के रूप में भक्ति-धाम बना रहेगा।' उनकी तीव्र आध्यात्मिक उत्कंठा है। यही कारण है कि उनके इसी अनासक्ति भाव की वजह से वे भिन्न व स्वयं गृहस्थाश्रमी होने पर भी उनमें कोई सांसारिक विरोधी लगने वाली व्यापार और धर्म की प्रवृत्तियों का ८८ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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