Book Title: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Author(s): Ganesh Lalwani
Publisher: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 427
________________ रस को तो उसने जड़ता का जनक मान कर उसकी खिल्ली है। पर पदमसुन्दर ने 'भूभूत' को समस्त पद में डाल उड़ायी है (शान्तरसैकमन्दधी ४.४१)। यदुसुन्दर में कर कल्पना के सौन्दर्य और काव्यात्मक प्रभाव को नष्ट यद्यपि शृगार के दोनों पक्षों का व्यापक चित्रण मिलता है कर दिया है। अतः मुल की भाँति यह नायिका की किन्तु कथानक की प्रकृति के अनुरूप इसमें विप्रलम्भ को व्यथा की व्यंजना नहीं करा सकती। अधिक महत्त्व दिया गया है। तृतीय सर्ग में कनका और कुबेर के पूर्वराग का वर्णन है, जो नैषध के क्रमशः चतुर्थ तनुतनुरुह जव्यधतो व्यथा भवति तत्र विलासवतीहृदि । . यदुजभूभदसौ स्थितिमाश्रयद्यदुत बाधत एव किमदभुतम् ।। तथा अष्टम् सर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। निराश कनका की विप्रलम्भोक्तियाँ भी इसी सर्ग में समाहित हैं। परन्तु कवि ने श्रीहर्ष के पदचिह्नों पर चलकर, अपने निम्नोक्त पद्य कनका के विरह की तीव्रता को अधिक विप्रयोग-निरूपण पर कल्पना-शीलता की इतनी मोटी पर्ते प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करता है। वह हृदय में धधकती चढ़ा दी हैं कि विप्रलम्भ की वेदना का आभास तक नहीं ज्वाला को शान्त करने के लिये वक्ष पर सरस कमल रखना होता। समूचा विप्रलम्भ-वर्णन अहोक्तियों का संकलन- चाहती है पर वह कमल उसके अंगों का स्पर्श करे, इसके सा प्रतीत होता है। ऐसे कोमल प्रसंगों में कालिदास पूर्व ही उसकी गर्म आहों से जलकर बीच में ही राख तीव भावोद्रेक करता है पर पदमसुन्दर संवेदना से शून्य हो जाता है। कल्पना सचमुच बहुत मनोरम है। प्रतीत होता है। उसपर अपनी नायिका की विरहवेदना विरहदाहशमाय गृहाण निजकरण सरोज मुरोजयोः । का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसे रोती कनका आँसू द्रुतमपि श्वसितोष्मसमीरणादजनि मुम्मुर इत्यजहात्ततः ॥ गिरा कर ‘दान्त' को 'दात' बनाती तथा प्रेम काव्य की रचना करती प्रतीत होती है (३.१६०, १७४) । ३.२१ निस्सन्देह यह नेषध का रूपान्तर की विवशता का परिणाम यह असहायता की पराकाष्ठा है। कहना न होगा, है पर इन क्लिष्ट कल्पनाओं और हथकण्डों के कारण ही यह कल्पना भी नेषध चरित्र से ली गयी है। १२ उसका विप्रलम्भ चित्रण निष्प्राण तथा प्रभावशून्य बना है। यदसन्दर के ग्यारहवें सर्ग में सम्भोग शुगार का उसमें सहृदय भावुक के मानस को छूने की क्षमता नहीं है, मधुर चित्रण है। यद्यपि यह वर्णन कालिदास तथा श्रीहर्ष भले ही कनका क्रन्दन करती रहे या अपने भाग्य को के प्रासंगिक वर्णनों से प्रेरित है, पर इसमें उन्हीं की भाँति गवानी पेरित है. पर दम रन्द्री: कोसती रहे। वर-वधू के प्रथम समागम का मनोवैज्ञानिक निरूपण किया - कछ कल्पनाएँ अवश्य ही अनठी हैं। यदि शरीर में गया है। लजीली नववधू समय बीतने के साथ-साथ छोटा-सा बाल भी चभ जाए, उससे भी पीडा होती है। केसे अनुकूल बनती जाती है, पद्मसुन्दर ने इसका हृदयकनका को वेदना का अनुमान करना कठिन है क्योंकि ग्राही अंकन किया है। भावसन्धि का यह चित्र नवोढा उसके कोमल हृदय में छोटा-मोटा बाल नहीं, विशालकाय के लज्जा तथा काम के द्वन्द्व की सशक्त अभिव्यक्ति है। पहाड़ (भूभृत-राजावसुदेव) घुस गया है। इस स्थातुमेनमनिरीक्ष्य नाददात्सुभृ वो रतिपतिनं च त्रपा । कल्पना का सारा सौन्दर्य श्लेष पर आधारित है। पद्म- वीक्षितुं वरयितर्यनारतं तदृशौ विदधतुगतागतम् ॥ सुन्दर की यह कल्पना नेषध के एक पद्य की प्रतिच्छाया ११ निविशते यदि शकशिखा पदे सृजति सा कियतीमिव न व्यथाम् । मृदुतनोर्वितनोतु कथं न तामवनिभृत प्रविश्य हृदि स्थितः ।। नैषध०, ४.११ १२ स्मरहुताशनदीपितया तथा बहु मुहुः सरसं सरसीरुहम् । श्रयितुमर्धपये कृतमन्तरा वसितनिर्मितमर्मरमुज्झितम् ॥ वही, ४.२६ ७८ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450