Book Title: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Author(s): Ganesh Lalwani
Publisher: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 432
________________ महामुणिव्व सुसंवर, कामिणीयणसीसंव ससीमंतयं अस्थि मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति की आरामसोहाकहा एवं थलासयं नाम महागामं ।। अज्ञातकृत कथा की गाथाओं में कोई समानता नहीं है। कथा के अन्त में कहा गया है: सूक्ष्म अध्ययन करने पर भाषा की कुछ समानता मिल मणुयत-सुरत्ताई कमेण सिवसंययं लहिस्संति । सकती है। कथा अंश लगभग एक जैसा है। कुछ स्थान एयं जिणभत्तीए अणण्ण सरिसं फलं होइ ।।२०१॥ के नामों में अन्तर है । यह मूल शुद्धिप्रकरणवृत्ति ई० सन् १०८६.६० में इस प्राकृत आरामशोभा कथा की अब तक निम्न रची गयी थी। अतः आरामशोभा कथा का अब तक ज्ञात पाण्डुलिपियों का पता चला है : २ यह प्राचीन रूप है। १ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति मंदिर, (२) प्राकृत की ३२० गाथाओं में आरामसोहाकहा अहमदाबाद, ( प्रस्तुत पाण्डुलिपि), नं० १६०५ कि रचना किसी अज्ञात कवि ने की है। उसी का परिचय _२ विजयधर्म लक्ष्मी ज्ञान-मंदिर, वेलनगंज, आगरा, इस लेख में दिया जा रहा है। यह रचना भाषा की दृष्टि नं. १६०१ से १२वीं शताब्दी की होनी चाहिये। इसका प्रारम्भ इस ३ देला उपासरा भण्डार, अहमदाबाद, नं० १३४ प्रकार हुआ है : ४ देला उपासरा भण्डार, अहमदाबाद, नं० १०० झविज्ज मूलभूअं दुवारभूअं पइन्व निहिभूअं । आहारभायणमिमं सम्मत्तं चरणघमस्स ॥१॥ ५ विमलगच्छ उपासरा ग्रन्थ भण्डार, फल्सापोल, अहमदाबाद, नं०६२७,८५२ इस सम्म सम्मत्तं जो समणो सावगो घरइ हिअए । ६ विमलगच्छ उपासरा ग्रन्थभण्डार, हजपटेलपोल, अपुव्व सो इदि लहेह आरामसोहु ब्वं ।।४।। ___ अहमदाबाद, डव्वा नं० १५, पोथी नं० ५. कारामसोहवुत्ता कह समत्ता तए सिरी लद्धा । ७ भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना, इअपुट्ठो अ जिणंदो आणं देणं कहइ एवं ॥५।। १८८७-६१ का कलेक्शन, नं० १२६३ यहाँ यह स्पष्ट है कि सम्यक्त्व का महत्व प्रतिपादन ८ भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पना, कर उसके उदाहरण में आरामशोभा की कथा कही गयी पीटर्सन रिपोर्ट १, नं० २३६ है। पांचवीं गाथा में आणंदेणं शब्द विचारणीय है। ऐसा ६ लीबंडी जैन ग्रन्थ भण्डार, नं० ६८१ प्रतीत होता है कि आनन्द नामक व्यक्ति द्वारा पूछे जाने ___ इन पाण्डुलिपियों की प्राप्ति एवं उनके अवलोकन से पर जिनेन्द्र ने इस कथा को कहा है। यह आनन्द श्रावक पता चलेगा कि इनमें कोई प्रशस्ति आदि है अथवा नहीं। है अथवा साधु यह शोध का विषय है। सम्पादन-कार्य के लिये भी इनसे मदद मिल सकती है। इस ग्रन्थ के अन्त में कोई प्रशस्ति नहीं है। केवल इतना कहा गया है कि 'हे भव्व जीव ! आरामशोभा की इस ग्रन्थ में कुछ उद्धरणों का प्रयोग हुआ है। अन्य तरह आप भी सम्यक्त्व में अच्छी तरह प्रयत्न करें, ग्रन्थों में उनकी खोज करने से इस ग्रन्थ के रचनाकाल जिससे कि शीघ्र ही शिव-सुख को प्राप्त करें। का निर्धारण हो सकता है। कुछ उद्धरण यहाँ प्रस्तुत हैंआरामसाहिआ विव इअ सम्म दंसणम्मि भो भव्वा । (क) दंसण-भट्ठो भठो दसण मुट्ठस्स नत्थि निव्वाणं । कुणह पयतं तुम्भे जह अहरा लहह सिवसुक्खं ॥३२०॥ सिझंति चरण-रहिआ दंसणरहिआ न सिज्झंति ॥३॥' इति सम्यक्त्व उपरि आरामशोभा कथा ! (ख) बालस्स माय-मरणं भज्जा-मरणं च जोवणारमे। ॥ श्री शुभं भवतु ॥ थेरस्स पुत-मरणं तिन्नि वि गुरुआइ दुक्खाई ॥१२॥ २ वेलणकर, एच० डी०, जिनरत्नकोश, पूना १६४४, पृ० ३३-३४ । ३ यह गाथा दर्शनपा हुड़ ( कुन्दकुन्द ) एवं भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक में यथावत उपलब्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450