Book Title: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Author(s): Ganesh Lalwani
Publisher: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti

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Page 425
________________ गहरा प्रभाव है कि इसमें श्रीहर्ष के भावों की, लगभग उसी की शब्दावली में, आवृत्ति करके सन्तोष कर लिया गया है। श्रीहर्ष ने काव्याचार्यों द्वारा निर्धारित विभिन्न शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक विरह दशाओं को इस प्रसंग में उदाहृत किया है । पद्मसुन्दर का वर्णन इस प्रवृत्ति से मुक्त है तथा केवल ४७ पद्यों तक सीमित है । दूतकर्म स्वीकार करने से पूर्व वसुदेव को वही आशंकाएँ मथित करती हैं ( ३.५७-७० ) जिनसे नल पीड़ित है ( नैषध ५. ६६-१३७ I दूत का महल में, अदृश्य रूप में प्रवेश तथा वहाँ उसका आचरण दोनों काव्यों में समान रूप से वर्ण है । ६ श्रीहर्ष ने छठे सर्ग का अधिकतर भाग दमयन्ती के सभागृह, दूती की उक्तियों तथा दमयन्ती के समर्थ प्रत्युत्तर (६.५८ - ११० ) पर व्यय कर दिया है ; पद्म सुन्दर ने समान प्रभाव तथा अधिक स्पष्टता के साथ उसे मात्र चौबीस पद्यों में निबद्ध किया है। अगले ४७ पद्यों से वेष्टित तृतीय सर्ग का अंश नैषध के आठवें सर्ग का प्रतिरूप है । कुबेर के पूर्वराग का वर्णन (३.१२२४१) नैषध चरित के आठवें सर्ग में दिक्पालों की विरह वेदना की प्रतिध्वनि मात्र है ( ८.६४ - १०८ ) । अन्तिम साठ पद्य नैषध चरित के नवम सर्ग का लघु संस्करण प्रस्तुत करते हैं । उनमें विषयवस्तु की भिन्नता नहीं है और भाषा तथा शैली में पर्याप्त साम्य है । दूत का अपना भेद सुरक्षित रखने का प्रयत्न, नायिका का उसका नामधाम जानने का आग्रह तथा दूत के प्रस्तावका प्रत्याख्यान, नायिका के करुण विलाप से द्रवित होकर दूत का आत्मपरिचय देना – ये समूची घटनाएँ दोनों काव्यों में पढ़ी जा सकती हैं। श्रीहर्ष को इस संवाद की प्रेरणा कुमारसम्भव के पंचम सर्ग से मिली होगी। वहाँ भी शिव वेष बदल कर आते हैं और अन्त में अपना वास्तविक रूप प्रकट करते हैं । नैषध चरित तथा यदुसुन्दर में दमयन्ती और कनका दूत की उक्तियों का मुँहतोड़ जवाब देती हैं" जबकि पार्वती के पास बहु के तर्कों का समर्थ उत्तर केवल ६ यदुसुन्दर, ३.७२-११४; नैषधचरित, ६.८-४४ । यदुसुन्दर, ३.१५०-१५७; नैषध चरित, ६.२७-३२ । • संसारमात्मना तनोषि संसारमसंशयं यतः । नैषध०, ६.१०४ । तद्विन्दुच्युतकमपातान्मां दांतमेव किमु दातमलं करोषि । यदुसुन्दर, ३.१६० । ७ ७६ ] यही है-न कामवृत्तिर्वचनीयमीक्षते ( कुमार ५.८२ ) । कालिदास के उमा - बटु-संवाद में मनोवैज्ञानिक मार्मिकता है । श्रीहर्ष और पद्मसुन्दर इस कोमल प्रसंग में भी चित्र काव्य के गोरख धन्धे में फंसे रहते हैं । उन्हें रोती हुई दमयन्ती तथा कनका ऐसी दिखाई देती हैं, जैसे आंसू गिरा कर क्रमशः 'संसार' का 'ससार' तथा 'दांत' को 'दात' बनाती हुई बिन्दुच्युतक काव्य की रचना कर रही हों। " Jain Education International पद्मसुन्दर के स्वयंवर - वर्णन पर नैषध का प्रभाव स्पष्ट है । श्रीहर्ष का स्वयंवर-वर्णन अलौकिकता की पर्तों में दबा हुआ है । उसमें पृथ्वीतल के शासकों के अतिरिक्त देवों, नागों, यक्ष, गन्धर्वों आदि का विशाल जमघट है, जिसका श्रीहर्ष ने पूरे पांच सर्गों में (१०-१४) जमकर वर्णन किया है । यदुसुन्दर का वर्णन भी इसके समान ही कथानक के प्रवाह में दुर्लध्य अवरोध पैदा करता है । पद्मसुन्दर ने नैषध में वर्णित बारह राजाओं में से दस को यथावत ग्रहण किया है, पर वह नैषध की भांति अतिमानवीय कर्म नहीं है यद्यपि उसमें भी देवों, गन्धर्वों आदि का निर्भ्रान्त संकेत मिलता है। वर्णन की लौकिक प्रकृति के अनुरूप पद्मसुन्दर ने अभ्यागत राजाओं का परिचय देने का कार्य कनका की सखी को सौंपा है, जो कालिदास की सुनन्दा के अधिक निकट है । श्रीहर्ष ने रघुवंश के छठे सर्ग के इन्दुमती स्वयंवर की सजीवता को विकृत बनाकर उसे एक रूढ़ि का रूप दे दिया है । सातवें सर्ग में वर-वधू का विवाह पूर्व आहार्य प्रसाधन नैषध के पन्द्रहवें सर्ग का, भाव तथा घटनाक्रम में इतना ऋणी है कि उसे श्रीहर्ष के प्रासंगिक वर्णन की प्रतिमूर्ति माना जा सकता है । कहना न होगा, नैषध का यह वर्णन स्वयं कुमारसम्भव के सप्तम सर्ग पर आधारित है, जहाँ इसी प्रकार वर-वधू को सजाया जा रहा है । विवाहसंस्कार तथा विवाहोत्तर सहभोज के वर्णन ( अष्टम सर्ग ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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