Book Title: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Author(s): Ganesh Lalwani
Publisher: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti

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Page 353
________________ रूप से होती है। स्व-हिंसा और पर-हिंसा। हिंसा का असुभोपयोग हैं, जिन्हें किसी भी प्रकार उपादेय नहीं विचार उठते ही हिंसक व्यक्ति की आत्मा स्वरूपच्युत हो समझना चाहिए। इस स्थिति से ही तो ऊपर उठना जाती है और वह स्वयं का वध कर लेता है । इसके अनन्तर जैन साधना की प्रारम्भिक अवस्था है। वीतरागता की 'पर-जीव' के प्राणों का घात होता है। कभी-कभी स्थिति शुद्धोपयोग है जो मोक्ष का साक्षात कारण है और हिंसा का विचार मन में उठकर रह जाता है या पर-जीव साधना की सीमा है। साधना में विषयराग को छोड़कर . का हिंसा का प्रयास सफल नहीं हो पाता-ऐसी स्थिति स्वधर्म तथा धर्मोपयोगी साधनों के प्रति अपने को अनुरक्त में भले ही व्यावहारिक रूप से हिंसा न दिखाई पड़े, करना पड़ता है। इस स्थिति में साधक में स्वभावतः वैचारिक दृष्टि से हिंसक व्यक्ति की आत्मा की हिंसा तो हो पंच-परमेष्ठी आदि में भक्ति का भाव रहता है। जीवों ही गई और हिंसा का फल उस व्यक्ति को मिलेगा ही। पर दया, अनुकम्पा, करुणा आदि के भाव भी यथासामग्री साधक में उत्पन्न होते हैं। यह सारी स्थिति शुभोपयोग इस प्रकार हिंसा के दो भेद हैं-अन्तरंग हिंसा, और रूप कही जाती है। यह शुभोपयोगी स्थिति अशुभोबहिरंग हिंसा । अशुद्धोपयोग अन्तरंग हिंसा और पर-जीव पयोगी स्थिति की अपेक्षा उपादेय या प्रशस्त कही जा का प्राणोच्छेद बहिरंग हिंसा है। किन्तु बहिरंग हिंसा के सकती है, किन्तु साधक का कर्तव्य है कि वह इस स्थिति कर्म का बन्ध कारक होना या न होना अन्तरंग हिसा पर को संसार-बन्ध का कारण समझते हुए शुद्धोपयोग की निर्भर है। २२ अन्तरंग हिंसा के अभाव में बहिरंग हिंसा स्थिति पर पहुंचने के लिए प्रयत्नशील रहे । २३ शुभीका कुफल व्यक्ति को नहीं भोगना पड़ेगा। इसीलिए पयोग से भले ही पुण्य मिलता हो, किन्तु पुण्य प्राप्त कहा गया कि यतनापूर्वक ( समिति ) आचरण करने वाले स्वर्गादि का सख भी एक दृष्टि से बन्धन ही है । २४ साधक को व्यावहारिक हिंसा के होने पर भी बन्ध नहीं यदि शुभोपयोग की स्थिति भी सम्यक्त्व से आलोकित हो होता, जबकि यतनापूर्वक आचरण न करने वाले को तो परम्परा से मोक्ष प्राप्त होना कहा गया है। २५ बाह्य हिंसा न होने पर भी, स्वात्म-घात का दोष लगेगा शभोपयोग की स्थिति में यदि मोहयस्तता हो तो शुद्धात्मही। अंतरंग हिंसा के अभाव में बहिरंग हिंसा स्वतः प्राप्ति असम्भव है ।२६ इसके विपरीत, शुद्धोपयोग को अप्रतिष्ठित हो जाएगी। लक्ष्य कर आगे बढ़ने वाला साधक, शुभोपयोग की प्रवृत्ति करता हुआ भी दोषग्रस्त नहीं होता। व्यवहार धर्म और वीतरागता की साधन : यद्यपि वीतरागता की स्थिति ही साधक का लक्ष्य है, मुनि अवस्था में साधक शुभोपयोग करता हुआ भी किन्तु वहाँ तक पहुंचने में कई सीढ़ियाँ पार करनी पड़ती अपने संयम का घात न हो-इसका विशेष ख्याल रखता है, मोह, राग और द्वेष के स्तर को क्रमशः भेद कर ही है।२७ साथ ही वह शुभोपयोग को कभी मुख्यता प्रदान बढ़ना सम्भव है। हिंसा, द्वेष, अपकार आदि कार्य नहीं करता, शद्धोपयोग की तुलना में गौण ही रखता २१ द्र० प्रवचनसार, २/५७ पर जयसेनाचार्य कृत टीका; कार्तिकेयानुप्रेक्षा, २/३१ । २२ प्रवचन सार, ३/१७ पर अमृतचन्द्र कृत टीका । प्रवचन सार, १४६, १/५, १/१९, ३/५४ पर अमृतचन्द्र कृत टीका। २४ समयसार, ३/१४६ ; प्रवचनसार १/७७ । २५ रयणसार, १०; प्रवचनसार, ३/५५ पर जयसेन कृत टीका । २६ प्रवचनसार, १/७६ । प्रवचनसार, ३/५० । ४ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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