Book Title: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Author(s): Ganesh Lalwani
Publisher: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti

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Page 369
________________ विवेक की सम्प्राप्ति एकमात्र अनेकान्त से ही हो सकती दया-भावना से ही सम्भव है । ज्ञान की ही सक्रिय अवस्था है। सत के प्रति आसक्ति और असत् के प्रति वैराग्य दया है। ज्ञान की सक्रियता के लिए दया अनिवार्य है। अनेकान्त की भावना से ही आता है। कहना चाहिए कि ज्ञान और दया दोनों एक ही सिक्के ___ भाषिक शुद्धि की दृष्टि से स्याद्वाद और वैचारिक के दो पहलू हैं। इसीलिए, अनन्त ज्ञान से सम्पन्न शद्धि की दृष्टि से अनेकान्तवाद की स्थापना श्रमण- तीर्थकर दयालु' या 'कल्याण मित्र' की संज्ञा से सम्बोधित संस्कृति की उदात्तता का ही पार्यन्तिक रूप है। आज हम किसी वस्तु को एकान्त दृष्टि से सत्य मानने का भम ब्रह्मचर्य की व्याख्या में भी श्रमण-संस्कृति ने उदार पालते हैं। किन्तु, अनेकान्तवाद इस भम को दूर करता दृष्टिकोण से काम लिया है। अन्यत्र जहाँ 'मरणं बिन्दहै। किन्तु वस्तु को हम एकान्त दृष्टि से सत्य मानकर प.तेन जीवनं विन्दुधारणात्' का कठोर निर्देश मिलता अपनी अनदात्त दृष्टि का ही परिचय देते हैं। कोई भी है, वहीं श्रमण-संस्कृति ने 'स्वदारसन्तोष-वत' को मानव एकान्त भाव से पूर्ण नहीं होता। यदि हम किसी ब्रह्मचर्य का दरजा दिया है। आज ब्रह्मचर्य के नाम दर्शन के तत्त्वज्ञ को ही पण्डित मान लेते हैं, तो यह । पर उन्मुक्त यौनमेध का जो नग्न ताण्डव दृष्टिगत होता है, एकान्त दृष्टि हुई। सम्भव है, उस पण्डित को सांख्यिकी उसका संयमन 'स्वदारसन्तोष-वत' से सहज ही सम्भव में तत्त्वज्ञता प्राप्त नहीं, तो फिर उसे एकान्त भाव से है। एकमात्र अपनी पत्नी में ही सन्तोष के व्रत का पालन पण्डित कहना उचित भी नहीं। अनेकान्त दृष्टि से दर्शन किया जाय, तो कामोष्मा से प्रतप्त आधुनिक समाज में की अपेक्षा यदि वह पण्डित है. तो सांख्यिकी की अपेक्षा संयम के स्वर्गीय सुख की अवतारणा हो जाय। पण्डित नहीं भी है। इसी विचारधारा के आधार पर श्रमण-संस्कृति अपने उदात्त दृष्टिकोण के कारण ही अनेकान्त में 'सप्तभंगी नय' की प्रतिष्ठा हुई है। इस नय व्यष्टिगत धारणा की अपेक्षा समष्टिगत धारणा के प्रति . के द्वारा हम एकान्त से अनेकान्त की ओर प्रस्थान करते आग्रहशील है। वह 'भूमा वे सुखं नाल्पे सुखमस्ति' के हैं, जहाँ हमें सम्पूर्ण जागतिक स्थिति का सही अभिज्ञान सिद्धान्त का समर्थन करती है। वह प्रमा (तद्वत प्राप्त होता है और उदात्त दृष्टिकोण से संवलित होने का तत्प्रकारकं ज्ञानं) पर आस्था रखत अवसर मिलता है। सर्वधर्मसमन्वय की समस्या का समा- को नकार देती है। वह सिद्धान्तों के भटकाव की स्थिति धान भी अनेकान्त ही दे सकता है । नहीं उत्पन्न करती। वह तो जीवन को सन्त्रास, कुण्ठा, ज्ञान और दया श्रमण-संस्कृति के मेरुदण्ड हैं। ये दोनों अनास्था, विसंगति आदि दुर्भावनाओं के घात-प्रतिघातों ऐसे दिव्य तत्त्व हैं, जिनमें उदात्त दृष्टिकोण का अपार से बचने को प्रेरित करती है, ताकि मानव अपनी मानवता सागर तरंगित होता रहता है। कोई भी ज्ञानी पुरुष की चरम परिणति के सुमेरु पर विराजमान हो सके, अनुदार नहीं हो सकता और किसी भी दयाल की सिद्ध शिला पर आसीन होकर पल्योपम भूमि को आयत्त विचारधारा संकीर्ण नहीं होती। किन्तु, दया की भावना कर सके । का उदय बिना ज्ञान के सम्भव नहीं। इसीलिए, जिनवाणी आज का मानव नितान्त परिग्रही हो गया है। उसने की मान्त्रिक भाषा है : 'पढम णाणं तओ दया ।' श्रमण- अपने इर्द-गिर्द अनेक आडम्बर चिपका रखे हैं । अज्ञानता संस्कृति में ज्ञान को ही प्रमाण माना गया है। ज्ञान भी और दयाहीनता के कारण वह अनपेक्षित आभिजात्य भावना ऐसा, जो स्व और पर को समान रूप से आभासित करे में पड़कर मानवता की गरिमा से परिच्युत हो गया है। और उसमें किसी प्रकार का बाधा-व्यवधान न हो। वह बाह्य जगत् में अकर्म को कर्म और कर्म को अकर्म इसीलिए आचार्य सिद्धसेन ने कहा है : 'प्रमाणं स्वपरा- मान बैठा है। भौतिकता से अतिपरिचय के कारण वह भासि ज्ञानं बाध विवर्जितम् ।' उदात्त दृष्टिकोण के लिए आध्यात्मिकता की अवज्ञा कर रहा है । उसका कोई भी ज्ञान का होना अनिवार्य है और ज्ञान का क्रियान्वयन कथन न तो सुचिन्तित होता है, न ही वह कोई सुविचारित २० ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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