Book Title: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Author(s): Ganesh Lalwani
Publisher: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 409
________________ वर्णनात्मक और धार्मिक भेदों में विभक्त किए जा सकते हैं । ७ डॉ० नेमीचन्द्र शास्त्री कहते हैं -- “ इनमें शृंगार, रतिभावना, नखशिख चित्रण, धनिकों के विलासभाव, रणभूमि की वीरता, संयोग, वियोग, कृपणों की कृपणता, प्रकृति के विभिन्न रूप और दृश्य, नारी की मसृण और मांसल भावनाएँ एवं नाना प्रकार के रमणीय दृश्य अंकित हैं । विश्व की किसी भाषा के कोष में इस प्रकार के सरस पद्य उदाहरणों के रूप नहीं मिलते। १८ हेमचन्द्र के अनेक दोहे हिन्दी साहित्य के आदिकालीन साहित्य का निरूपण करते हुए सुविज्ञ समीक्षकों द्वारा उद्घृत किए गए हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहासवेत्ताओं क्षत्रिय नारियों की वीरता के आदर्श-आकलन में निम्न दोहा प्रस्तुत किया है : भल्ला हुआ जु मारिया बाहिणि महारा कन्तु । लज्जेज्जंतु वयं सिअहुं जइ भग्गा घर अंतु ॥ वीर रस के दोहों में नारी की दर्पोक्तियों का विशेष महत्त्व है। डॉ०हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में- "स्त्रियों की अद्भुत दर्षोक्ति जो आगे चलकर डिंगल कविता की जान बन गई, इन दोहों में प्रथमबार बहुत ही दृप्त स्वर में प्रकट हुई है । " " नायिका के कथन द्रष्टव्य हैं : ऐ सखि ! . बेकार बक-बक मत कर। मेरे प्रिय के दो ही दोष हैंजब दान करने लगते हैं तो मुझे बचा लेते हैं और जब जूझने लगते हैं तो करवाल को : महु तो वे दोसड़ा हेल्लि म शंखहि आलु | देन्तहो हउँ पर उ-वरिय जुज्झन्तहो करवालु || यदि शत्रुओं की सेना भागी है तो इसीलिए कि मेरा प्रिय वहाँ है और यदि हमारी सेना भागी है तो इसीलिए कि वह मर गया है : जब भग्गा पारक्कडा तो सहि मज्झपिएण । अह भग्गा अम्हत्तणा सो ते मारि अडेण || ९ जहाँ वाणों से वाण कटते हैं, टकराती है उसी भट घटा समूह में प्रकाशित करता है : जहिं कपिज्जइ सरिण सरु छिज्जइ खग्गिण खग्गु । तहिं तेहइ भड घड निवहि कन्तु पयासइ मग्गु || Jain Education International जब प्रिय देखता है कि अपनी सेना भाग खड़ी हुई है और शत्रु का बल वर्द्धित हो रहा है तब चन्द्रमा की महीन रेखा के समान मेरे प्रिय की तलवार खिल उठती है और प्रलय मचा देती है : तलवार से तलवार मेरा प्रिय मार्ग को भग्गउँ देखिवि निययवलु वलु पसरिअउँ परस्स । उम्भिलइ ससिरेह जिवं करि करवालु पियस्स || इस जन्म में भी और अगले जन्म में भी, हे गोरि ! ऐसा पति देना जो अंकुश के बन्धन को अस्वीकार कर देने वाले मदमत्त हाथियों से अनायास भिड़ सके : आयई जम्महि अन्नहिं वि गोरि सु दिज्जहि कन्तु । गयमत्तहँ चत्तकुस हैं जो अब्भिडहि हसन्तु || वह देखो, हमारा प्रिय वह है जिसका बखान सैकड़ों लड़ाइयों में हो चुका है । वह, जो अंकुश को अस्वीकार करने वाले मत्त गजराजों के कुम्भ विदीर्ण कर रहा है : संग एहि जुवणिअइ देवबु अम्हारा कन्तु । अहिमत्तहँ चत-सहँ गय कुम्भेहि वारन्तु || ७ अपभ्रंश काव्य परम्परा और विद्यापति, डॉ० अंबादंत पंत, पृष्ठ ३५६ । ८ प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृष्ठ ५४० । हिन्दी साहित्य का आदिकाल, पृष्ठ ६३ । १० हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, पृष्ठ २२४-२२५ । ६० ] डॉ० नामवर सिंह वीर रस से पगे-सने दोहों के विषय में कहते हैं- “यहाँ पुरुष का पौरुष ही नहीं, उसके पार्श्व में वीर रमणी का दर्प भरा प्रोत्साहन भी मिलेगा, यदि एक ओर शिव का ताण्डव है तो दूसरी ओर उनके पार्श्व में शक्ति का लास्य भी है ।" १० सामान्यतः नारियाँ कामना करती हैं कि किसी तरह मेरे प्रियतम लड़ाई - भिड़ाई के कामों से अवकाश पाकर मेरे आंचल तले सुख-शांति से कुछ दिन बिताएँ । ऐसी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450