Book Title: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Author(s): Ganesh Lalwani
Publisher: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti

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Page 367
________________ सकती है, जब कि वह वैचारिक दृष्टि से अपने को कभी अनुदार नहीं होने देती । इसी लिए जन-कल्याण के निमित्त वैचारिक उदारता की शत आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य मानी गई है। लोकमार्ग का नेतृत्व वही कर सकता है, जो विचार से उदार होता है और आचार की दृष्टि से 'आत्मनेपदी' । आचार की दृष्टि से जो केवल 'परस्मैपदी' होता है, उसका विचार या आचार कभी लोकग्राह्य नहीं होता । इसलिए, सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति में आत्मचिन्तन को सर्वोपरि महत्व दिया गया है। उदारवादी दृष्टि से यह स्पष्ट है कि आत्मचिन्तन श्रमण-संस्कृति का उदात्त का सम्बन्ध आत्म-संयम या आत्मनियन्त्रण या आत्मदमन दृष्टिकोण से जुड़ा हुआ है। श्रमण तीर्थकर भगवान महावीर ने आत्मदमन को बड़ा कठिन बताया है। उन्होंने कहा है : - डॉ श्रीरंजन सूरिदेव अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पा हु खलु दुद्दमो । भू० पू० संपादक, परिषद् पत्रिका अप्पा दन्तो सुही होइ अस्सि लोए परस्थ य ॥ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना __-उत्तरा० १/१५ मानव-समाज में जब वैचारिक ह्रास आ जाता है, निश्चय ही, दुर्दम आत्मा का दमन करनेवाला व्यक्ति तब उसमें संकीर्णता का प्रवेश होता है और उसकी ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है। आत्मदमन चिन्तनधारा का उदात्त दृष्टिकोण संशय के धुंधलके में आत्मपीड़न का पर्याय है । आत्मा के अनुकूल वेदनीय सुख दिग्भ्रान्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में विशेष रूप से है और प्रतिकूल वेदनीय दुःख । तीर्थकर पुरुष चँ कि सर्वजाति और धर्म ही संकीर्णता के प्रवेश-द्वार हुआ करते भूतहित के आकांक्षी होते हैं, इसलिए वे प्रतिकूल वेदहैं । जाति और धर्म के प्रति दुराग्रह या हठाग्रह ही वेचा- नीयता पर विजय पाने के निमित्त आत्मदमन या आत्मरिक संकीर्णता को जन्म देता है। इस सन्दर्भ में श्रमण पीड़न करते हैं। अर्थात्, परत्राण के लिए प्रतिकूल को संस्कृति का दृष्टिकोण इसलिए उदात्त है कि वह अनकल बनाकर आत्मसुख अनुभव करते हैं। और, सही - वैचारिक संकीर्णता का सर्वथा प्रत्याख्यान करती है। माने में उदार व्यक्ति वही होता है, जो परदुःख के श्रमण-संस्कृति और वैदिक-संस्कृति के बीच, ऐति- विनाश के लिए आत्मदुःख को वरण करने में ही सुख का हासिक दृष्टिकोण से कोई स्पष्ट विभाजक रेखा नही अनुभव करता है। इसलिए, 'वसुदेव हिण्डी' के 'धम्मिल्लखींची जा सकती। ये दोनों संस्कृतियाँ चक्रगति के अनु- चरित' में धर्म की परिभाषा करते हुए संघदासगणि वाचक क्रम से समय-समय पर अपनी सत्ता स्थापित करती रही ने कहा है : 'परस्स अदुक्खकरणं धम्मोत्ति' । इस प्रकार हैं। जिस संस्कृति में जितनी अधिक वैचारिक उदारता सम्पूर्ण श्रामण्य संस्कृति परदुःख के विनाशमूलक उदारता रहेगी, उसकी सत्ता उतनी ही अविचल और लोकाटत की उदात्त भावना से ओतप्रोत है। होगी। अधुना श्रमण-संस्कृति के प्रति अत्यधिक लोकाग्रह भगवान महावीर के पंचयाम धर्म में श्रमण-संस्कृति का कारण उसकी वैचारिक उदारता ही है। के उदात्त दृष्टिकोण का ही भव्यतम विनियोग हुआ है। __ कोई भी संस्कृति मानव-जिजीविषा की पूर्ति के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँचों साधनों की प्राप्ति के उपायों का समर्थ निर्देश तभी कर साधारण जन-जीवन को उदात्त दृष्टिकोण से संवलित १८ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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