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वाला वस्त्रपट है जिसमें थोड़े में अधिक भाव व्यक्त किये हैं। नगर के परकोटे में दो जिनालय हैं। बाहर में एक और गाड़ी पड़ी है जिसके नीचे बैल वैठे विश्राम कर रहे हैं । एक ओर गुरु महाराज वा व्याख्यान हो रहा है । गोल जलाशय के पास यात्री खड़े हैं और खोंचे वाले विक्रेताओं से सामान क्रय कर रहे हैं। पहाड़ पर वृक्षादि भी हैं और यात्रीगण चढ़ रहे हैं।
इसी प्रकार गिरनार यात्रार्थ आए संघ के चित्र में तलहटी, नगर परकोटे में जिनालय, जलाशय, गुरु महाराज का व्याख्यान, गाड़ियां, वहली, देहरासर-रथ, चलते हुए यात्रीगण आदि सुन्दर दिखाए हैं। शत्रुजय गिरिराज दर्शन में सं० १६९८ के पंचतीर्थी पट के शव. जय पटांश का फोटो छपा है जो अहमदाबाद के सुप्रसिद्ध सेठ शांतिदास द्वारा निर्मापित है । इसमें तीर्थ के संक्षिप्त भाव दिखाये हैं । इसकी प्रशस्ति के अनुसार इसमें गिरनार आव, चंद्रप्रभ, मुनिसुव्रत, जीरावला, नवखंडा. देवकुलपाटक, हस्तिनापुर, कलिकुण्ड, फलवृद्धि, करहेटक, शंखेश्वर तीर्थादि के चित्र भी होने चाहिए।
संघवी द्वारा चौमुखीजी की टूक प्रतिष्ठा आदि का चित्र है। आचार्यों और संघपति आदि के चित्र भी अनेक और महत्वपूर्ण हैं। यह चित्रपट जैसलमेर में खरतरगच्छ की वेगड़ शाखा के जिनेश्वरसूरि के समय पं० अमरदत्त द्वारा चित्रित है जो स्वयं यात्रा में साथ थे और लगभग एक वर्ष पश्चात् सं० १६७६ वैशाख सुदि ३ में बनकर तैयार हुआ है। प्रशस्ति में अनेक नगरों के संघ और श्रावकों के नाम भी हैं । भौगोलिक दृष्टि से शत्रुञ्जय तीर्थ की तत्कालीन स्थिति की पर्याप्त जानकारी मिलती है ।
इसी चित्र शैली और बीकानेरी कलम का लगभग ३० फुट लंबा बद्रीनारायण यात्रा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण टिप्पणकचित्र श्रीलालचंदजी वोथरा के संग्रह में देखा था जिसका विवरण प्रकाशित किया जा चुका है।
तीर्थयात्रापट दो प्रकार के होते हैं। आज भी शत्रुजय पट पालीताना आदि में प्रचुर परिमाण में बनते हैं और पाषाण मय एट भी प्राचीन काल से बनते आये हैं उनका बड़ा भारी ऐतिहासिक महत्त्व है । तीर्थों के मानचित्र में नव निर्माण होते रहने से कब क्या परिवर्तन आया है यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। ये पट आकार में बहुत बड़े होते हैं । बीकानेर ज्ञान भण्डार में कतिपय और हमारे संग्रह में भी बहुत बड़ा चित्रपट है। जयपुर के खरतरगच्छीय ज्ञानभंडार में अनेक प्रकार के चित्रपट संगृहीत हैं जिनमें एक यात्रा पट जो टिप्पणक ( Scroll ) आकार में २५ फुट लंबा और २३।। इंच चौड़ा है। यह विज्ञप्तिपत्र की माँति चित्रित है। इसमें सं० १६७५ वैशाख सुदि १३ के श्रीजिनराजसूरि जी और जिनसागरसूरि के नेतृत्व में संघ यात्रा और रूपाजी
काष्ठफलक चित्र
शिल्प और चित्रकला के उपादानों में काष्ठ का स्थान भी बड़ा महत्त्वपूर्ण है। वाड़ी पार्श्वनाथ का अद्भुत गवाक्ष विदेशों के संग्रहालयों की शोभा बढ़ाता है। इसी प्रकार शत्रुञ्जय के एक जिनालय का परिपूर्ण आकार अमेरिका में विद्यमान है। काष्ठफलकादि पर चित्रित प्राचीन चित्र भी पर्याप्त प्रमाण में उपलब्ध हैं । राजमहलों में सेठ. साहूकारों के घरों व मन्दिरों के शहतीर, आला, अलमारी आदि के कपाटों पर चित्र करने की प्राचीन प्रथा थी। मन्दिरों में व्यवस्थापकों की असावधानी से एतद्विषयक सामग्री नष्ट हो गई। हस्तलिखित ग्रन्थों को रखने के लिए जो डिब्बे होते उन्हें "डाबड़ा" कहा जाता था। उन पर भी विविध भाँति के चित्राङ्कन पाये जाते हैं जिन में अष्टमङ्गल, चतुर्दश महास्वप्नादि के साथ-साथ भगवान की माता एवं फूल-पत्तियाँ और घटनाक्रम के चित्र भी अंकित रहते थे। ग्रन्थों को रखने की बड़ी पेटियाँ भी कहींकहीं सुन्दर चित्रों से युक्त कलापूर्ण होती थीं। लाक्षा व रोगन वार्निश के लेप से उन्हें चमकदार बनाया जाता था । छोटेछोटे कलमदान भी चित्र संयुक्त बनाये जाते थे।
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