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गंडी पुस्तक-चौड़ाई और मोटाई में समान किन्तु विविध लंबाई वाली ताडपत्रीय पुस्तक को गडी कहते हैं । इस पद्धति के कागज के ग्रन्थों का भी इसी में समावेश होता है।
कच्छपी पुस्तक-जिस पुस्तक के दोनों किनारे संकरे तथा मध्य में कछुए की भांति मोटाई हो उसे कच्छपी पुस्तक कहते हैं। यह आकार कागज के गुटकों में तो देखा जाता है पर ताडपत्रीय ग्रन्थों में नहीं देखा जाता।
मुष्टि पुस्तक-जो पुस्तक चार अंगुल लम्बी और गोल हो. मुट्ठी में रख सकने योग्य हो उसे मुष्टि पुस्तक कहते हैं। छोटी-मोटी टिप्पणाकार पुस्तकें व आज की डायरी का इसी में समावेश हो जाता है।
पर यहां ताड़पत्र. वस्त्र, कागज, काष्ठपट्टिका, भोजपत्र, ताम्रपत्र, रौप्यपत्र. सुवर्णपत्र, पत्थर आदि का समावेश करते हैं। गुजरात, राजस्थान, कच्छ और दक्षिण में स्थित ज्ञान भण्डारों में जो भी ताड़पत्रीय ग्रन्थ उपलब्ध हैं. तेरहवीं शती से पूर्व, ताड़पत्र पर ही लिखे मिलते हैं। बाद में कागज का प्रचार अधिक हो जाने से उसे भी अपनाया गया । मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरिजी के समय विक्रम सं० १२०४ का ध्वन्यालोकलोचन' ग्रन्थ उपलब्धा है, पर टिकाऊ होने के नाते ताड़पत्र ही अधिक प्रयुक्त होते थे। महाराजा कुमारपाल, वस्तुपाल और तेजपाल के समय में भी कुछ ग्रन्थ कागज पर लिखे गए थे. फिर भी भारत की जलवायु में अधिक प्रचीन ग्रन्थ टिके नहीं रह सकते थे, जबकि जापान में तथा यारकन्द नगर के दक्षिण ६० मील पर स्थित कुगियर स्थान से भारतीय लिपि के चार ग्रन्थ वेबर साहव को मिले, जिन्हें ईसा की पांचवीं शती का माना जाता है । ताड़पत्रीय ग्रन्थों में सबसे प्राचीन एक त्रुटित नाटक की प्रति का 'भारतीय प्राचीन लिपि माला' में उल्लेख किया गया है जो दूसरी शताब्दी के आसपास की मानी गई है। ताड़पत्रों में खास करके श्रीताल के पत्र का उपयोग किया जाता था। कुमारपाल प्रवन्ध के अनुसार श्रीताल दुर्लभ हो जाने से कागज का प्रचार हो गया। पाटण भण्डार के एक विकीर्ण ताड़पत्र के उल्लेखानुसार एक पत्र का मूल्य छः आना पड़ता था।
संपुट फलक-व्यवहार पीठिका गा. ६ की टीका व निशीथ चूणि के अनुसार काष्ठफलक पर लिखी जाने वाली पुस्तक को संपुटफलक कहते हैं । विविध यंत्र, नक्शे, समवसरणादि चित्र जो काष्ठ-संपुट में लिखे जाएं. वे इसी प्रकार में समाविष्ट होते हैं।
छेद पाटी-थोड़े पन्नों वाली पुस्तक को कहते हैं, जिस प्रकार आज कागजों पर लिखी पुस्तकें मिलती हैं। उनकी लम्बाई का कोई प्रतिबन्ध नहीं, पर मोटाई कम हुआ करती थीं।
उपर्युक्त सभी परिचय विक्रम की सातवीं शताब्दी तक के लिखित प्रमाण से बतलाए गए हैं परन्तु उस काल की लिखी हुई एक भी पुस्तक आज उपलब्ध नहीं है । वर्तमान में जितने भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, पिछले एक हजार वर्षों तक के प्राचीन हैं। अतः इस काल की लेखन सामग्री पर प्रकाश डाला जा रहा है।
लिप्यासन-लेखन उपादान, लेखनपात्र-ताड़पत्र, वस्त्र, कागज इत्यादि । जैसा कि ऊपर बतलाया है राजप्रश्नीय सूत्र में इसका अर्थ मषीभाजन रूप में लिया
वस्त्र पर लिखे ग्रन्थों में धर्मविधि प्रकरण वृत्ति, कच्छली रास और त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र (अष्टम पर्व) की प्रति पत्राकार पायी जाती है जो २५ X ५ इंच की लंबी-चौड़ी है परन्तु लोकनालिका, अढ़ाई द्वीप, जम्बूद्वीप, नवपद, ह्रींकार, घण्टाकर्ण, पंचतीर्थीपट आदि के वस्त्रपट चित्र प्रचुर परिमाण में पाये जाते हैं। सिद्धाचल जी के पट तो आज भी बनते हैं और प्राचीन भी ज्ञान भण्डारों में बहुत से हैं। जम्बूदीप आदि
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