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अनुवाद की मैंने प्रतिलिपि करवाई थी। व्याधिग्रस्त अवस्था में भी लेटे-लेटे उसका मिलान करवा रहे थे। मिलान करते समय प्रसंग आया-"जिनपतिसूरिजी के साथ शास्त्रार्थ में निरुत्तरित हो जाने से आ० पद्मप्रभ की नानी मर गई।" मुझमें बचपना तो था ही। मैंने उसी समय जोर से आवाज दी- "देख पारस, नानी मर गई।" पारस भंवरलालजी का ही सुपुत्र है। समवयस्क होने के कारण हम साथ में खेला भी करते थे। उक्त शब्दों को सुनते ही इन्होंने अक्रोश और विनम्रतापूर्वक मुझे डाँटा और समझाया भी। "आप क्या बोल गये हैं, आपको ध्यान भी है? इन शब्दों का अर्थ क्या होता है? आप साधु हैं. अतः आपको सोच-विचारपूर्वक भाषा का उपयोग करना चाहिए । आपको पारस को बुलाकर कहना ही था, तो 'पारस ! शास्त्रार्थ में पद्मप्रभ की नानी मर गई' कहना था । आगे-पीछ के वाक्यांशों को छोड़कर, बीच के वाक्यों को पकड़ने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। आप जानते हैं न ? मतमतान्तरों के उद्भव भी अपूर्ण वाक्यावलियों से हुए हैं और होते हैं। मूर्तिपूजा के विरोध के रूप में स्थानकवासी और तेरह पंथ का उद्गभव भी अपूर्ण वाक्यांशों का ही परिणाम है।"
उस समय यह फटकार मुझे अखरी भी. किन्तु मेरे लिये वरदायी बन गई।
१७. ज्ञान और अर्थ समृद्ध होते हुए भी इनके जीवन में निरभिमानता, निश्च्छलता और निःस्पृहत्व है। इसका प्रमुख कारण है जीवन में धार्मिक संस्कारों की परिपूर्णता । परमधर्मनिष्ठ होने के कारण ४७ वर्ष की दीर्घ पर्याय एवं चरण में तकलीफ होते हुए भी नियमित रूप से देव-पूजन करने मंदिर जाते हैं। गुरु विद्यमान हों तो वहाँ भी जाते हैं। प्रातः सामायिक करते हैं। रात्रि भोजन कदापि नहीं करते हैं । तपश्चर्या भी करते हैं। पर्युषण में तेला करते हैं। इनकी धर्मनिष्ठा के कारण परिवार में भी धार्मिक संस्कार दृष्टिगत होते हैं। परनिन्दा में भाग/रस नहीं लेते हैं और गुग ग्रहण करने में पीछे नहीं रहते हैं। किसी में गुणों को देखकर उसकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हुए अघाते नहीं हैं।
१८. खरतरगच्छ के सुदृढ़ स्तम्न और अनन्य भक्त हैं। इन ज्ञानवृद्ध की समानता में बैठने वाला खरतरगच्छ के चसुर्विध संघ में आज कोई भी दृष्टिगोचर नहीं होता है।
१९. बड़ा मंदिर और जैन भवन, कलकत्ता, सम्मेतशिखर तीर्थ कमेटी आदि बीसों संस्थाओं से सम्बद्ध हैं । उनकी व्यवस्था में अपने तन एवं समय से योग भी देते हैं।
काकाजी श्री अगरचन्दजो नाहटा के स्वर्गवास के पश्चात् भंवरलालजी साहव हतोत्साहित नजर आते हैं । ये मानते हैं कि 'मुझे निर्देश और सक्रिय प्रेरणा देने वाला साथी नहीं रहा' । इस कारण इनका मन उचाट-सा भी रहने लगा है।
अन्त में गुरुदेव से मैं यही प्रार्थना करता हूँ कि वे श्री भंवरलालजी साहब में आन्तरिक शक्ति स्फुरित करें जिससे कि यह ज्ञानवृद्ध दीर्घकाल तक स्वस्थ रहता हुआ पूर्ववत् साहित्य-सेवा में तन्मय रहे और धर्मिष्ठों एवं साहित्य-सेवियों का मार्गदर्शक बना रहे। इसी शुभाशंसा के साथ श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ।
-महोपाध्याय विनयसागर
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