Book Title: Bhagwati sutram Part 01
Author(s): Abhaydevsuri, 
Publisher: Agamoday Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 606
________________ REHRSHASHA व्याख्या-त्ता तयाऽव्यवच्छित्तिनयार्थतया-द्रव्यमाश्रित्य शाश्वता इत्यर्थः, 'वोच्छित्तिणयट्टयाए'त्ति व्यवच्छित्तिप्रधानो यो नय- ७ शतके प्रज्ञप्तिः स्तस्य योऽर्थः-पर्यायलक्षणस्तस्य यो भावः सा व्यवच्छित्तिनयार्थता तया २-पर्यायानाश्रित्य अशाश्वता नारका इति ॥ उद्देशो३-४ अभयदेवी- | सप्तमशते तृतीयोद्देशकः ॥ ७-३ ॥ शाश्वततरया वृत्तिः१ | तेसू २८० तृतीयोद्देशके संसारिणः शाश्वतादिस्वरूपतो निरूपिताश्चतुर्थोद्देशके तु तानेव भेदतो निरूपयन्नाह जीवभेदा॥३०॥ रायगिहे नगरे जाव एवं वदासी-कतिविहाणं भंते! संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता ?, गोयमा! छबिहा|||दि सू२८१ |संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकाइया एवं जहा जीवाभिगमे जाव सम्मत्तकिरियं वा| | मिच्छत्तकिरियं वा ॥ सेवं भंते सेवं भंतेत्ति। जीवा छबिह पुढवी जीवाण ठिती भवहिती काए । निल्लेवण | | अणगारे किरिया सम्मत्तमिच्छत्ता ॥१॥ (सूत्रं २८१)॥७-४॥ | 'कतिविहा णमित्यादि, 'एवं जहा जीवाभिगमेत्ति एवं च तत्रैतत्सूत्रम्-'पुढविकाइया जाव तसकाइया, से किं |तं पुढविकाइया ?, पुढविकाइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सुहुमपुढविकाइया बायरपुढविकाइया'इत्यादि, अन्तः पुनरस्य-|| &ाएगे जीवे एगेणं समएणं एक किरियं पकरेइ, तंजहा-सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा' अत एवोक्तं 'जाव सम्मत्ते' |त्यादि, वाचनान्तरे त्विदं दृश्यते-“जीवा छविह पुढवी जीवाण ठिती भवहिती काए । निल्लेवण अणगारे किरिया सम्म-|| || ॥३०२॥ ४ात मिच्छत्ता ॥१॥” इति, तत्र च षविधा जीवा दर्शिता एव, 'पुढवि'त्ति पविधा बादरपृथ्वी श्लक्ष्णा १ शुद्धा २& वालुका ३ मनःशिला ४ शर्करा ५ खरपृथिवी ६ भेदात् , तथैषामेव पृथिवीभेदजीवानां स्थितिरन्तमुहूतादिका यथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656