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यह सोचकर सार्थवाह ने कहा-'भाई ! डरो मत। मैं तुम्हें दुःख से मुक्त करने आया हूं।'
सार्थवाह के यह कहने पर भी उस भयभीत की आशंका न मिटी। वह मन में सोचता रहा कि कहीं यह भी ठग ही न हो और मुझे फिर सताने आया हो। सार्थवाह ने भी सोचा-मैं जिह्वा से कह रहा हूं कि तुझे भयमुक्त करने आया हूं, मगर जब तक इसके बंधन न खोल दूं तब तक इसे विश्वास कैसे हो सकता है? बंधन मुक्त होने पर ही यह भयमुक्त होकर विश्वास कर सकेगा।
यह सोचकर सार्थवाह उसके समीप गया और उसने बंधन खोल दिये। बंधन खोलने पर भी उसे पूरा विश्वास न हुआ। लेकिन जब सार्थवाह ने उसकी आंखों की पट्टी भी खोल दी और उसने देख लिया कि यह ठग नहीं-कोई दयालु पुरुष है, तब उसे विश्वास हुआ। उसने कहा- मेरे भाग्य अच्छे थे कि आप जैसे दयामूर्ति पुरुष का यहां आगमन हुआ, नहीं तो न जाने कब तक मैं यहां बंधा हुआ कष्ट पाता अथवा किसी जंगली जानवर का भक्ष्य बन जाता।
सार्थवाह के शब्द जब कार्यरूप में परिणत हुए तभी उस धनिक को उन शब्दों पर विश्वास हुआ।
सार्थवाह ने उसकी आंखों की पट्टी खोल दी और वह सब कुछ देख सकता था; मगर धूर्त लोग उसे इस तरह घुमा फिरा कर उस स्थान पर लाये थे कि उसे मार्ग की कल्पना नहीं हुई और दिग्मूढ़ होकर चक्कर में पड़ गया। उसे अपने घर का रास्ता नहीं सूझता था। तब सार्थवाह ने उसे मार्ग भी बता
दिया।
सार्थवाह ने उसे घर का मार्ग बता दिया। लेकिन धनिक का भय बना हुआ था कि रास्ते में कहीं फिर धूर्त न मिल जाएं इसलिए सार्थवाह ने उसे शरण दी अर्थात् दो चार सवार उसके साथ कर दिये।
सार्थवाह द्वारा इतना सब कर देने पर भी धनिक अपने घर जाने में सकुचाता था। वह अपना धन खो चुका था। अब वह अपना मुंह घर वालों को कैसे दिखावे? यह बात जानकर सार्थवाह ने उसे उतना धन भी दिया जितना उसने गंवाया था।
भगवान् को लोकोत्तम और पुरुषोत्तम कहने के साथ ही 'अभयदय' भी कहा गया है। इसी विशेषण को समझाने के लिए यह दृष्टान्त दिया गया है।
- श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १०७