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अनेक पद ऐसे होते हैं जिनके व्यंजन भी भिन्न-भिन्न होते हैं। और अर्थ भी भिन्न-भिन्न होता है । जैसे -घट, पट, लकुट आदि । यहाँ न व्यंजनों की समानता है न अर्थ की समानता है । यह पद चौथे भंग के अन्तर्गत हैं । गौतम स्वामी ने प्रश्न करते हुए यहाँ चौभंगी के दूसरे और चौथे भंग को ग्रहण किया है। अर्थात् उन्होंने इन दो भंगों को लेकर ही प्रश्न किया है। प्रश्न किया जा सकता है कि गौतम स्वामी ने उक्त चौभंगी के प्रथम और तृतीयभंग को क्यों छोड़ दिया? उनके विषय में प्रश्न क्यों नहीं किया? इसका उत्तर यह है कि पहले और तीसरे भंग का इन नौ पदों में समावेश नहीं होता, क्योंकि नघ पदों के व्यजंन भिन्न-भिन्न हैं यह स्पष्ट रूप से प्रकट है। इसमें प्रश्न को अवकाश ही नहीं है। इसी कारण गौतम स्वामी ने प्रथम और तृतीय भंग को छोड़ कर दूसरे और चौथे भंग को ग्रहण करके ही प्रश्न किया है ।
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान ने फरमाया है कि-चलमाणे चलिए, उदीरिज्जमाणे उदीरिए, वेइज्जमाणे वेइए और पहिज्जमाणे पहीणे इन चार पदों के व्यंजन और घोष निराले - निराले हैं लेकिन अर्थ एक ही है। और आगे के पाँच पद भिन्न घोषों वाले, भिन्न व्यंजनों वाले और भिन्न अर्थ वाले हैं।
यहां यह आशंका होती है कि चलमाणे चलिए इत्यादि जिन चार पदों को एक अर्थ वाला बतलाया गया है, उनका अर्थ भिन्न भिन्न प्रतीत होता है और पहले भिन्न-भिन्न अर्थ किया भी गया है। ऐसी स्थिति में भगवान ने किस अपेक्षा में चारों पदों का अर्थ एक फरमाया है?
इस संबंध में शास्त्रकार का कथन है कि जो भी बात कही जाती है वह किसी न किसी अपेक्षा से ही कही जाती है। यहां चारों पदों को उत्पन्न पक्ष की अपेक्षा से एकार्थक बतलाया गया है।
वादी और प्रतिवादी के द्वारा बोला जाने वाला आदि वचन पक्ष कहलाता है। यहां इन चारों पदों को उत्पाद नामक पक्ष पर्याय को ग्रहण करके एक अर्थ वाला कहा गया है। तात्पर्य यह है कि प्राथमिक चार पदों का अर्थ उत्पाद पर्याय की अपेक्षा एक ही अर्थ है और यह चारों एक ही काल में होने वाले हैं एक ही अन्तर्मुहुर्त में चलन-क्रिया, उदीरणा-क्रिया, वेदनाक्रिया और प्रहीण क्रिया भी हो जाती है। इन चारों की स्थिति एक ही अन्तर्मुहूर्त हैं। इस प्रकार तुल्य काल की अपेक्षा से भी यह चार पद एक अर्थ. वाले कहलाते हैं।
श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २१५