Book Title: Bhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Author(s): Jawaharlal Aacharya
Publisher: Jawahar Vidyapith

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Page 309
________________ अर्थात्-वैमानिक देवों को जितने सागरोपम की स्थिति हो, उनका श्वासोच्छवास उतने ही पक्ष में होता है और आहार उतने ही हजार वर्ष में समझना चाहिए। यह चौबीस दंडकों के विषय में व्याख्यान हुआ। किस दंडक वाले जीव की कितनी स्थिति है; क्या आहार है, कर्म पुदगल कैसे लगते हैं, और किस प्रकार झड़ते हैं, इत्यादि अनेक-विध प्रश्न गौतम स्वामी ने किये और भगवान् महावीर ने उनका उत्तर दिया। अब तक जो प्रश्नोत्तर हुए हैं, उन सबके आधार पर यह प्रश्न उपस्थित होता है, कि जब आत्मा अरूपी है तो उसमें आहार आदि का झगड़ा क्यों है? श्वासोच्छवास और कर्मबंध आदि भी कैसे होते हैं? आत्मा अमूर्त होने के कारण आकाश की भांति निर्लेप, निर्विकार रहनी चाहिए। सांख्यमत में आत्मा अकर्ता है, क्योंकि अमूर्त्तिक है। जो अमूर्त्तिक होता है, वह कर्ता नहीं होता; जैसे आकाश। आकाश अमूर्तिक है, अतएव कर्ता नहीं है, इसी प्रकार आत्मा भी कर्ता नहीं होनी चाहिए। सांख्य के इस मत में यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मा अमूर्त होने से अगर कर्ता नहीं है तो सुख-दुःख का भोग क्यों करती है? इस प्रकार उत्तर सांख्य यह देते हैं कि यह सब प्रकृति करती है। प्रकृति के संसर्ग से आत्मा अपने आपको सुखी-दुःखी मान लेती है, पर वास्तव में सुख-दुःख प्रकृति के ही होते हैं। सांख्य की यह मान्यता न जैनो को स्वीकार है, न वेदान्तियों को। इस मान्यता पर सर्वप्रथम ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मा अगर अरूपी और अकर्ता है तो? वह शरीर में क्यों पड़ी है? सांख्य यह कह सकते हैं कि पकृति ने इसे कैद कर रक्खा है, मगर यदि प्रकृति के रोकने से यह शरीर में रुकी रहती है और कर्ता नहीं है, तो उसे मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है ? इसके अतिरिक्त जड़ प्रकृति को तो कर्ता माना जाये और चेतन आत्मा को अकर्ता कहा जाये, यह कहां तक तर्कसंगत हो सकता है? अब यह कहा जा सकता है कि आपके (जैन) मत में आत्मा रूपी है या अरूपी? रूपी तो आप स्वीकार नहीं करते। अगर अरूपी है और ज्ञानवान् भी है तो वह अज्ञान के कार्य क्यों करती है? इसका उत्तर यह है कि आत्मा स्वभाव से अरूपी होते हुए भी प्रकृति के साथ लगी हुई है। आत्मा अनादिकाल से है और अनादि काल से ही कर्मों के साथ उसका संयोग हो रहा है। कर्मो के साथ एकमेक हो जाने के कारण संसारी आत्मा कथञ्चित् रूपी बनी हुई २६८ श्री जवाहर किरणावली

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