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ब्राह्य भोजन की आकांक्षा ही न हो, यही नहीं वरन् किसी भी पर पदार्थ के संयोग की इच्छा न रह जाये। तभी सच्चा सुख प्राप्त होता है।
भगवान ने गौतम स्वामी से कहा कि नरक के जीवों के आहार के सम्बन्ध में पण्णवण्णा सूत्र के 28 वें पद में जो वर्णन किया है, वही वर्णन यहां भी समझ लेना चाहिए।
__पण्णवण्णा सूत्र में नरक आदि के जीवों का आहार वर्णन छोटे-छोटे हिस्सों में किया गया है। उन हिस्सों को द्वार कहते हैं। उन द्वारों में नरक के जीवों के आहार के साथ दूसरे जीवों का आहार भी बतलाया गया है तथा आहार-विषयक और और बातें भी वहां बतलाई गई हैं। यहां नारकी जीवों के आहार के विषय में ही पण्णवण्णा के अनुसार दिग्दर्शन कराया जाता है।
पण्णवण्णा सूत्र में गौतम स्वामी भगवान महावीर से प्रश्न करते हैं कि-हे भगवन्! अगर नारकी जीव आहारार्थी हैं तो कितने समय में उन्हें आहार की इच्छा होती है? अर्थात् एक बार आहार कर लेने के पश्चात् कितने समय बाद उन्हें आहार की अभिलाषा होती है।?
__ इस प्रश्न के उत्तर में भगवान फरमाते हैं-हे गौतम! नरक के जीवों का आहार दो प्रकार का है-(1) आभोगनिर्वर्तित और (2) अनाभोगनिर्वर्तित। खाने की बुद्धि से जो आहार किया जाता है, वह आभोगनिर्वर्तित आहार कहलाता है और आहार की इच्छा न होने पर भी जो आहार होता है, वह अनाभोगनिर्वर्तित आहार कहलाता है।
यहां आहार का प्रकरण होने से आहार के विषय में ही यह कहा गया है कि इच्छा न होने पर भी आहार होता है। मगर यह कथन अन्य क्रियाओं के सम्बन्ध में भी लागू होती है। इच्छा के बिना अन्यान्य कार्य भी प्रकृति के नियमानुसार होते रहते हैं। छद्मस्थ-अवस्था जब तक बनी हुई है, या जब तक यह स्थूल शरीर विद्यमान है, तब तक अनाभोगपूर्वक कार्य होते रहते हैं। इन कार्यों में कुछ अनजान में होते और कुछ जानकारी में होते हैं। हां, अपनी इच्छाओं को नियंत्रण करते रहने से और अच्छे कार्यों में निरंतर संलग्न रहने से अनाभोग आहार कम अवश्य हो सकता है।
प्रश्न-अनाभोग आहार अर्थात् अनजान में इच्छा न होते हुए भी होने वाला आहार कैसे सम्भव है?
उत्तर-मनुष्य यह नहीं चाहता कि मेरे शरीर पर रज लगे या मेरे भोजन में गंदगी आवे, लेकिन जब आंधी चलती है तो शरीर पर रज लग ही जाती है और भोजन में भी वह आ जाती है। जब कोई बीमारी फैलती है तब २३८ श्री जवाहर किरणावली