Book Title: Bhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Author(s): Jawaharlal Aacharya
Publisher: Jawahar Vidyapith

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Page 268
________________ संबंध में जितने और जैसे प्रश्न किये गये हैं, वही सब प्रश्न चय के संबंध में भी समझ लेने चाहिए और उनका उत्तर भी परिणमन सम्बन्धी उत्तरों के समान ही समझ लेना चाहिए। इस प्रकरण में टीकाकार के कथनानुसार वाचना की भिन्नता देखी जाती है। एक जगह एक प्रकार की वाचना है तो दूसरी जगह दूसरी ही वाचना है। वाचना के इस भेद को देखकर शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि पाठ में भिन्नता होने पर भी अभिधेय-मूल वक्तव्य सबका समान है। अतएव पाठान्तर से शंका नहीं वरन् शंका का समाधान होना चाहिए। संदेह होता है कि दो पाठ परस्पर विरोधी होने से मान्य नहीं हो सकते, तब एक किस पाठ को मान्य किया जाये? मगर इसमें संदेह की कोई बात नहीं है। दोनों आचार्य जब शास्त्र लिखने के समय एकत्र हुए, तब दोनों को दो तरह की बातें स्मरण में थीं, क्योंकि पहले शास्त्र लिखे हुए नहीं थे, कण्ठस्थ ही थे। आचार्यों ने अपने अपने स्मरण की बात एक दूसरे के सामने रख दी और कहा कि न हम सर्वज्ञ हैं, न आप सर्वज्ञ हैं। ध्येय दोनों का एक है। तब दोनों में से किसका स्मरण सही है और किसका नहीं है, यह कैसे कहा जा सकता है? अतएव दोनों बातें लिख दें। इनमें कौन-सी बात सही है, यह ज्ञानी जानें। दोनों आचार्यों को सर्वज्ञ के वचनों पर और अपने-अपने स्मरण पर विश्वास था। ऐसी स्थिति में अपने स्मरण को गलत मानने का कोई कारण न था। इस कारण दोनों आचार्यों ने दोनों बातें लिख दीं। इस प्रकार के मतभेद को देखकर शास्त्र में शंका मत लाओ। यह मतभेद शास्त्र की और शास्त्र के प्रणेता आचार्यों की प्रामाणिकता के प्रमाण है। उक्त दोनों आचार्यों ने किसी एक निर्णय पर पहुंचने का प्रयास किया, लेकिन दोनों छद्मस्थ थे, केवलज्ञानी नहीं। अतएव उन्होंने समभाव से अपनी-अपनी धारणा को सत्य स्वीकार करते हुए भी दूसरे की धारणा को असत्य नहीं ठहराया। ऐसा करके वे हमारे सामने एक उज्जवल आदर्श छोड़ गये है। हमें उनका अनुकरण करके शास्त्र के संबंध में हठवाद से काम नहीं लेना चाहिए और अपने आपको ही सत्यवादीसा ठहराकर दूसरे को झूठा घोषित करने का साहस नहीं करना चाहिए। जिन पुद्गलों को आहार रूप में परिणत किया है, उनका शरीर में एकमेक होकर शरीर को पुष्ट करना चय कहलाता है। चय के परिणमन की ही तरह चार भंग हैं। इन चार भंगों का उत्तर परिणमन की तरह ही है। श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २५७ 2009

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