Book Title: Bhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Author(s): Jawaharlal Aacharya
Publisher: Jawahar Vidyapith

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Page 304
________________ असुरा नाग-सुवण्णा,विज्जु-अग्गी य दीव-उदही य । दिसि-वाऊ थणिया वि य, दसभेया भवणावासीणं।। अर्थात्-भवनवासी देवों के दस भेद हैं- (१) असुरकुमार (2) नागकुमार (3) सुवर्णकुमार (4) विद्युतकुमार (5) अग्निकुमार (6) द्वीपकुमार (7) उदधिकुमार (8) दिक्कुमार (9) वायुकुमार और (10) स्तनितकुमार। एक दण्डक नारकी जीवों का और दस दण्डक भवनवासी देवों के, यह ग्यारह दण्डक हुए। इसके पश्चात् एक दंडक पृथ्वीकाय के जीवों का आता है। पृथ्वीकायिक जीवों की आयु अन्तर्मुहूर्त की है। ऊपर जो परिमाण मुहूर्त का बतलाया गया है, उससे कुछ कम समय अन्तर्मुहूर्त कहलाता है। पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट स्थिति 22 हजार वर्ष की, खर पृथ्वी की अपेक्षा से कही गई है। पृथ्वी के छह भेद हैंसण्हा य सुद्ध वालुय, मणांसिला सक्कारा य खर पुढवी। एग बारस चोद्दस सोलस अट्ठारस बावीस त्ति।। पहली स्निग्ध-सुहाली पृथ्वी है। इसकी स्थिति एक हजार वर्ष की है। दूसरी शुद्ध पृथ्वी की बारह हजार वर्ष की स्थिति है। तीसरी बालुका पृथ्वी की चौदह हजार वर्ष की, चौथी मनःशिला पृथ्वी की सोलह हजार वर्ष की, पाचवीं शर्करा पृथ्वी की अठारह हजार वर्ष की, और छठी खर पृथ्वी की बाईस हजार वर्ष की स्थिति है। विमात्रा-आहार करने से यह तात्पर्य है कि उसमें कोई मात्रा नहीं है। कोई कैसा आहार लेता है, कोई कैसा, पृथ्वीकाय के जीवों का रहन-सहन भिन्न-भिन्न और विचित्र है। इसलिए उनमें श्वास की भी मात्रा नहीं है कि कब-कितना लेता है। तात्पर्य यह है कि इनका श्वासोच्छवास विषम रूप है। उसकी मात्रा का निरूपण नहीं किया जा सकता। ___ शास्त्र सम्बन्धी वार्ता बड़ी आनन्ददात्री है। मगर जिसमें इस वार्ता का रस लेने का सामर्थ्य हो, वही आनन्द ले सकता है। आजकल हम लोगों का ज्ञान अत्यल्प है और जीवन में जंजाल बहुत हैं। अतएव हम लोग शास्त्र के रहस्य को भली-भांति समझ नहीं पाते। मगर आज जीवन कितना ही व्यस्त क्यों न हो, जिस समय शास्त्र का निर्माण हुआ, उस समय ऐसा जंजाल न था। इस कारण उस समय शास्त्र बड़े महत्व की दृष्टि से देखे जाते थे। - श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २६३

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