Book Title: Bhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Author(s): Jawaharlal Aacharya
Publisher: Jawahar Vidyapith

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Page 260
________________ दूसरे आचार्य कहते हैं कि ऐसा नहीं है। यहां नय विशेष की अपेक्षा से कथन है। ऋजुसूत्रनय के अनुसार शरीर रूप में परिणत पुद्गलों के असंख्य भाग का आहार करता है। जो पुद्गल शरीर रूप में परिणत नहीं हुए उन्हें ऋजुसूत्रनय शुद्ध होने से आहार रूप नहीं मानता। ऋजूसूत्रनय भूत और भविष्य को छोड़कर केवल वर्तमान को स्वीकार करता है। अतः जितने पुद्गल आहार रूप में ग्रहण किये हैं, उन्हें व्यवहार नय तो आहार कहता है, लेकिन ऋजुसूत्रनय के मत से जो पुद्गल उनमें से शरीर रूप परिणत हुए हैं, वही आहार रूप हैं। उदाहरणार्थ, किसी व्यक्ति ने दूध पीया। उसमें से कुछ भाग खल-मल रूप में परिणत हो गया और शेष भाग से रस आदि धातुएं बनीं। ऋजुसूत्रनय इस परिणति को ही आहार मानता है। __ जैसे गाय बहुत-सा घास एक साथ मुंह में भरती है, पर उसमें से बहुत सा भाग गिर जाता है, वह आहार में परिगणित नहीं होता। ऋजुसूत्रनय के अनुसार वे ही पुद्गल आहार-रूप कहलाते हैं, जो वास्तव में आहार रूप में परिणत होते हैं, सब ग्रहण किये हुए पुद्गल नहीं। असल में आहार वही है जो शरीर रूप में परिणत हों। शरीर रूप में परिणत होकर भी पुद्गलों का असंख्यात भाग ठहरेगा और संख्यात भाग नहीं ठहरेगा। पिये हुए एक सेर दूध में से कुछ भाग रस बनेगा और शेष मल बन कर निकल जायेगा। शरीर में जो रस बना, वही ऋजुसूत्रनय के अनुसार आहार कहा जा सकता है। ग्रहण किये हुए पुद्गलों में से उतना ही रस शरीर में खिंचता है, जितनी शक्ति होती है। कमजोर मनुष्य आहार में से पूरी तरह रस नहीं खींच पाता और उसका आहार कच्चे मल के रूप में निकल जाता है। मल को देखने से पता लग जाता है कि आहार में से कितना रस खींचा गया है? आहार करने का जो प्रयोजन है। उस प्रयोजन के पूर्ण होने पर ही ग्रहण किये पुद्गल आहार कहलाएंगे। जब तक उनसे आहार का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, तब तक उन्हें आहार नहीं कहा जा सकता। आहार करने का प्रधान प्रयोजन है-शरीर और इन्द्रियों में शक्ति का संचार होना। इस प्रयोजन को जो पुद्गल पूर्ण करते हैं वही आहार है। तीसरे आचार्य का कथन यह है कि वास्तव में आहार वह है जो शरीर के साथ तद्रूप परिणत हो जाये। जैसे मनुष्य जो आहार करता है, उसमें से अधिकांश खल-मल रूप में बाहर निकल जाता है, वह आहार नहीं कहलाता। उसी प्रकार जो पुद्गल शरीर रूप में परिणत नहीं होते, उन्हें rom -श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २४६

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