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है कि नरक के जीवों को भी आहार की इच्छा होती है। तत्पश्चात् गौतम स्वामी पूछते हैं 'नरक के जीव आहार किस प्रकार लेते हैं?' भगवान् ने कहा-प्रज्ञापना सूत्र में आहार नामक अट्ठाइसवां पद है। उसके पहले उद्देशक में इस विषय का वर्णन किया गया है। उसमें नरक के जीवों के अतिरिक्त अन्यान्य जीवों के भी आहार का वर्णन किया गया है।
__ साधारणतया विचार करने से यह समझ में नहीं आता कि ऐसे-ऐसे प्रश्नोत्तर करने से गौतम स्वामी और भगवान महावीर ने क्या लाभ सोचा होगा? उन्हें नरक के जीवों के आहार को जानने एवं बताने की क्या आवश्यकता थी? लेकिन भगवान् ने नरक के जीवों के आहार के 40 द्वार बतलाये हैं। यह उन महान् पुरुष की असीम करुणा है। जिन जीवों के आहार का वर्णन किया है, उन्हें चाहे अपने आहार की बात इतनी स्पष्ट रूप से ज्ञात न हो, लेकिन ज्ञानियों की दृष्टि से वह छिपी नहीं है। उन्होंने अज्ञजनों को समझाने के लिए यह सब वर्णन किया है।
प्रश्न-नारकी जीवों के आहार के संबंध में पण्णवण्णा सूत्र का जहां उल्लेख किया है, वहां पद का उल्लेख न करके सीधा आहारोद्देशक क्यों कहा गया है? पहले पद बतलाना उचित था, फिर उसके साथ उद्देशक का कथन करना ठीक रहता।
उत्तर- यहां पद लोपी समास हुआ है। इस समास के कारण 'पद' शब्द का लोप हो गया है तथापि 'पद' शब्द का अर्थ विद्यमान समझना चाहिए।
पण्णवण्णा सूत्र में आहार-विषयक जो वर्णन आया है, उसका सामान्य दिग्दर्शन शास्त्रकार ने निम्नलिखित गाथा में किया है।
ठिई उस्सासाऽऽहारे, किं वाऽऽहारेंति सव्वओ वावि। कइभागं सव्वाणि व, कीस वा मुज्जो परिणमंति?||
इस संग्रह-गाथा में उन चालीस द्वारों का संक्षिप्त उल्लेख किया गया है।
__ भगवान ने गौतम स्वामी से कहा कि नारकी जीव भी आहार के अर्थी हैं। यहां आहार के अर्थी के दो अर्थ शास्त्रकारों ने किये हैं। जिसे आहार की इच्छा हो, वह आहारार्थी कहलाता है और आहार ही जिनका प्रयोजन हो वह भी आहारार्थी कहलाते हैं।
गौतम स्वामी के प्रश्न और भगवान महावीर के उत्तर से तत्व यह निकला कि निकृष्ट से निकृष्ट योनि में पड़े हुए जीव को भी आहार की आवश्यकता पड़ती है। जहां शरीर है वहां आहार अनिवार्य है। २३६ श्री जवाहर किरणावली