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इसका समाधान यह है कि यहां दोनों ही अर्थ निकल सकते हैं। अर्थात् इसे परिवार का साथ रहना भी समझा जा सकता है और परिवार इतना था, यह भाव भी समझा जा सकता है।
इस काल में इतने साधु-साध्वियों के एक साथ विहार होने में बहुत सी बातों का विचार हो सकता है, लेकिन जिस समय का यह वर्णन है उस समय के लोगों का प्रेम, उस समय के गृहस्थों की दशा, आदि बातों पर ध्यान देने में यह बात मालूम हो जायेगी कि इतने साधु-साध्वियों के एक साथ विहार करने में किसी प्रकार की असुविधा नहीं हो सकती। अकेले आनन्द श्रावक के यहां चालीस हजार गायें थी। इस श्रावक के घर कितने साधुओं की गोचरी हो सकती थी, यह सरलता से समझ में आ सकता है।
इस कथन से यह अभिप्राय नहीं समझना चाहिए कि सब साधुसाध्वी एक ही साथ विहार करते थे। शास्त्र में अलग-अलग विहार करने के प्रमाण भी विद्यमान हैं। जैसे- सूर्यगडांग सूत्र में गौतम स्वामी के अलग विहार करने का उल्लेख मिलता है। केशी स्वामी से चर्चा करने के लिए भी गौतम स्वामी ही गये थे। उस समय भगवान् साथ नहीं थे। इत्यादि अनेक प्रमाणों से सिद्ध है कि साधु अलग-अलग भी विहार करते थे।
इसके अतिरिक्त एक बात और है केवलज्ञानी के लिए दूर या पास में कोई अन्तर नहीं है। उनके लिए जैसे दूर, वैसे ही पास। ऐसी स्थिति में यदि यह कहा जाये कि भगवान् इतने परिवार से घिरे हुए पधारे, तब भी कोई असंगति नहीं है।
भगवान् चौदह हजार साधुओं और छत्तीस हजार आर्यिकाओं के परिवार से घिरे हुए हैं, अनुक्रम से अर्थात् आगे बड़ा और पीछे छोटा-इस क्रम से ग्रामानुग्राम यानी एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करते हुए पधारे।
कुछ लोगों की ऐसी भ्रममय धारणा है कि महापुरुष आकाश से उड़कर आते हैं-वे साधारण पुरुषों की भांति पृथ्वी पर नहीं चलते ! इस धारणा का विरोध करने के लिए ही भगवान् के विहार का यह वर्णन किया गया है। भगवान् महावीर आकाश में उड़कर नहीं चलते थे, किन्तु ग्रामानुग्राम विहार करते हुए पधारते थे। पक्षियों की भांति उड़ना महापुरुषों का विहार नहीं है।
इसके अतिरिक्त चाहे ग्राम हो या नगर हो, भगवान् की दृष्टि सभी जगह रहने वाले सभी जीवों पर समान थी। इसी कारण वे पैदल और ग्रामानुग्राम विचरते थे, जिससे सभी जीवों का कल्याण हो। इस प्रकार १३४ श्री जवाहर किरणावली
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