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गौतम स्वामी घोर गुण वाले हैं। उनके मूल गुण ऐसे हैं कि दूसरा कोई नहीं पाल सकता। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अकिंचनता रूप पांचों महाव्रतों का वे इस प्रकार पालन करते हैं कि इस प्रकार से पालन करना दूसरों के लिए कठिन है।
गौतम स्वामी का तप मूल गुणों के साथ ही साथ लगा है। मूल गुण , अहिंसा का जितने प्रशस्त रूप में पालन होगा, तप वैसा ही प्रशस्त होगा। बिना अहिंसा तप नहीं होता। सत्य भी जितना घोर होगा, तप भी उतना ही घोर होगा। गौतम स्वामी में यह समस्त गुण तप के साथ हैं इसलिए उन्हें 'घोर' गुण कहा है।
गौतम स्वामी घोर ब्रह्मचारी हैं। ब्रह्मचर्य सब तपों में उत्तम तप है। गौतम स्वामी के गुणों और व्रतों के वर्णन में यद्यपि ब्रह्मचर्य का समावेश हो जाता है तथापि ब्रह्मचर्य की महत्ता प्रकट करने के लिए उसका अलग उल्लेख किया है।
ब्रह्मचर्य की व्याख्या लम्बी है, लेकिन ब्रह्मचर्य का संक्षिप्त अर्थ है-इन्द्रिय और मन पर पूर्ण रूप से आधिपत्य स्थापित करना। जो पुरुष अपनी इन्द्रियों पर और मन पर आधिपत्य जमा लेगा वह आत्मा में ही रमण करेगा, बाहर नहीं। गौतम स्वामी ब्रह्मचर्य का इतनी दृढ़ता से पालन करते हैं कि और लोग उनके ब्रह्मचर्य की बात सुनकर ही कांप जाते हैं। इसलिए उनका ब्रह्मचर्य घोर है।
गौतम स्वामी पूर्ण ब्रह्मचारी हैं, यह कैसे प्रज्ञात हुआ ? इसका उत्तर यह है कि गौतम स्वामी इस प्रकार रहते हैं मानों उन्होंने शरीर फैंक दिया हो। शरीर की उन्हें जरा भी चिन्ता नहीं रहती। उसकी ओर उनका ध्यान कभी नहीं जाता। इस प्रकार रहन-सहन के कारण उन्हें 'उछूढ़ शरीर' कहा है। जो शारीरिक सुखों की तरफ से सर्वथा निरपेक्ष हो जाता है-शरीर के सुख के प्रति उदासीन बन जाता है, वही पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है। शरीर को संवारने वाला, शरीर सम्बन्धी टीमटाम करने वाला ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता।
एक गुण दूसरे गुण पर अवलम्बित रहता है। जिसका ब्रह्मचर्य गुण भली भांति नहीं पलता है, उनके अन्यान्य मूल गुण भी स्थिर नहीं रह पाते। इस प्रकार मूल गुणों की स्थिरता के लिए जैसे ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है उसी प्रकार ब्रह्मचर्य की स्थिरता के लिए शरीर संस्कार के त्याग की परम आवश्यकता है। ऐसा किये बिना ब्रह्मचर्य व्रत नहीं पल सकता। अगर किसी १५४ श्री जवाहर किरणावली