________________
बाद वह अपने घर की दिशा को जान लेगी, धोखा नहीं खायेगी। रात-दिन हिंसा करने में लगे रहने वाले और हिंसा से ही जीवन यापन करने वाले हिंसक प्राणी की आत्मा में भी तेज मौजूद है। लेकिन वह तेज तभी काम आ सकता है जब उसकी आत्मा अपना स्थान देखने को और अपना उद्धार करने को खड़ी हो जाती है। वह अपने आपको कब खड़ा कर सकती है और किस प्रकार खड़ा कर सकती है, इस सम्बन्ध में भगवान् ने कहा कि वह अपनी आत्मा से दूसरों के दुःख का अनुभव करे। एक की हिंसा करने में ही आनन्द मानने वाले दूसरे हिंसक को ही मारने के लिए यदि कोई तीसरा व्यक्ति आ जाये, तो उस हिंसक व्यक्ति को तीसरा व्यक्ति कैसा लगेगा? बहुत बुरा। उसे दूसरों को मारना तो अच्छा लगता है, मगर जब अपने मरने का समय उपस्थित होता है तो बुरा क्यों लगता है? इस अनुभव के आधार पर ही हिंसक को यह मालूम हो जायेगा कि दूसरे को मारना कैसा बुरा है। आत्मा में इस अनुभव के पश्चात् होने वाला गुण पहले ही मौजूद है, पर अज्ञान यह है कि वह अपने भय को तो भय मानता है, लेकिन दूसरे के भय को भय नहीं जानता। जब इस प्रकार का अनुभव करके उस पर विचार करता है कि मुझको मारने वाला मुझे इतना बुरा लगता है तो जिन्हें मैंने मारा है, उन्हें मैं क्यों न बुरा लगा होऊंगा? इस प्रकार का विचार आते ही वह सोचने लगता है कि यह मुझे मारने नहीं वरन् शिक्षा देने आया है।
हिंसक के हृदय में जब यह पवित्र विचार अंकुरित होता है, तभी उसके जीवन की दिशा बदलने लगती है। वह अपनी आत्मा का उद्धार करने के लिए खड़ा हो जाता है। तब क्यों न उसका उद्धार होगा।
आत्मा के स्थान की यही दिशा है। मनुष्य अपने सुख-दुःख की तराजू पर दूसरे के सुख-दुःख को एवं इष्ट-अनिष्ट को तोले। 'मुझे कोई कष्ट देता है तो वह मुझे अप्रिय लगता है, इसी प्रकार अगर मैं किसी को कष्ट पहुंचाऊंगा तो मैं भी उसे अप्रिय लगूंगा। मुझे सुख-साता प्रिय है, दुख अप्रिय है।' यह आत्मौपम्य की भावना मनुष्य को अनेक उलझनों में से पार कर ठीक मार्ग बतलाती है। इसी भावना से कर्तव्य का निर्णय करना चाहिये। जो ऐसा नहीं करता वह चक्कर में पड़ जाता है।
भगवान् महावीर ने कर्तव्य स्थिर करने के लिए संसारी जीवों के हितार्थ उन्हें 'चक्षु' का दान दिया है। चक्षु दो प्रकार के हैं-एक इन्दिग्ररूपी चक्षु और दूसरा श्रुत ज्ञान रूपी चक्षु । भगवान् श्रुत ज्ञान रूपी नेत्र के दाता हैं। ११० श्री जवाहर किरणावली