Book Title: Bhagawan Mahavir Smaranika 2009 Author(s): Mahavir Sanglikar Publisher: Jain Friends Pune View full book textPage 6
________________ कम खाए, ज्ञान आत्मा का निजी गुण है तथा वही आत्मा को संसार से मुक्त करने की शक्ती रखता है । इसकी महत्ता के विषय में जो कुछ भी कहा जाये, कम है। फिर भी विद्वान अपने शब्दों में इसके महत्त्व को बतलाने का प्रयत्न करते है। एक श्लोक के कहा गया हैतमो धुनी कुरूते प्रकाशं, शमं विधत्ते विनिहन्ति कोषम् । तनोति धर्म विधुनीति पापं, ज्ञानं न किं किं कुरुते नराणाम्।। - बताया गया है की मात्र ज्ञान ही अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करके आत्मा में अपना पवित्र प्रकाश फैलाता है तथा उसके समस्त निजी गुणों को आलोकित करता है। ज्ञान की आत्मिक गुणों को नष्ट करनेवाले क्रोध को मिटाकर उसके स्थान पर समभाव को प्रतिष्ठित करता है, तथा पापों दूर कर आत्मा में धर्म की स्थापना है। अंत में संक्षेप में यही कहा गया है की ज्ञान मनुष्य के लिए क्या क्या नहीं करता? अर्थात् सभी कुछ करता है जो हमारे लिये कल्याणकारी है। ज्ञानी और अज्ञानी में अंतर इस संसार में ज्ञानी और अज्ञानी, दोनों प्रकार के प्राणी पाये जाते है। ज्ञानी पुरुष वे होते हौ जो अपने विवेक और विशुद्ध विचारों के द्वारा अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण रखते है, तथा ज्ञान के आलोक मे आत्म मुक्ती के मार्ग को खोज निकालते है, किंतु अज्ञानी व्यक्ती इसके विपरित होते है। विषय भोंगो को उपादेय मानते है, और उन्हें भोग न पाने सुख पाए पर भोगने की उत्कट लालसा रखने के कारण निरंतर कर्मबंधन करते रहते है तथा अंत मे अकाम मरण को प्राप्त होकर पुन: जन्म - मरण करते रहते है। इसीलिये ज्ञानी और अज्ञानी में अंतर बताते हुए कहा गया है जं अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुयाई वास कोडीहीं। तं नाणी तिहि गुत्तो खवेइ उस्सास मित्तेण ॥ अर्थात् जिन कर्मों को क्षय करने में अज्ञानी करोडों वर्ष व्यतीत करता है, उन्ही कर्मों का ज्ञानी एक श्वासमात्र के काल में ही कष्ट कर डालता है। बंधुओ ! ज्ञानी और अज्ञानी की क्रिया में कितना अंतर है ? ज्ञान का माहात्म्य कितना जबर्दस्त है ? इसीलिये तो धर्मग्रंथ तथा धर्मात्मा पुरुष सम्यक् ज्ञान की प्राप्ती पर बल देते है। कहते है- अपने मन और मस्तिष्क की समस्त शक्ती लगाकर भी ज्ञान हासिल करो ज्ञान हासिल करने के लिये वे अनेक उपाय भी बताते है । उनमें ज्ञानप्राप्ती का एक उपाय है- ऊनोदरी करना । ऊनोदरी का हमारे यहाँ तप भी माना गया है जो मन और रसना इंद्रिय पर नियंत्रण करके भावनाओं और विचारों को आसक्ति तथा लालसा से रहित बनता हुआ आत्मा को शुद्ध करता है। - आचार्य आनंद ऋषी लिया जायेगा ? परंतु बंधुओ, हमें इस विषय के तनिक गहराई से सोचना, समझना है। यह सही है कि खुराक में दो-चार कौर कम खाने से कोई अंतर नही पडता किंतु अंतर पडता है खाने के पिछे रही हुई लालसा कम होने से । आप जानते ही होंगे कि कर्मों का बंधन कार्य करने की अपेक्षा उसके पीछे रही हुई भावना से अधिक होता है। आसक्ति और लालसा का कम होना ही वास्तवमें आंतरिक तप है। जैनागमों मे तपश्चर्या का बड़ा भारी महत्त्व बताया और विशद वर्णन किया गया है तथा आत्म शुद्धी के साधनों में तप का स्थान सर्वोपरि माना या गहै। तपश्चरण साधना का प्रमुख पथ है । यह आंतरिक (आभ्यन्तर) और बाह्य दो भेदों में विभाजित है । प्रत्येक साधक तभी अपनी आत्मा को शुद्ध बना सकता है, जबकी उसका जीवन तपोमय बने । तप का प्रभाव तपस्या के द्वारा आत्मा का समस्त कलूष उसी प्रकार धुल जाता है, जिस प्रकार आप साबुन के द्वारा अपने वस्त्रों का धो डालते है। दुसरे शब्दों में जिस प्रकार अ में तप कर स्वर्ण निष्कलुष हो जाता है, उसी प्रकार तपस्या की आग में आत्मा का समग्र मैल भी भस्म हो जाता है। तथा आत्मा अपनी सहज ज्योती को प्राप्त कर लेती है। तपस्या से मनुष्य अपनी उच्च से उच्च अभिलाषा का पूर्ण कर सकता है, तप का प्रभाव अबाध्य और अप्रतिहत होता है। वह अपने मार्ग में आनेवाली प्रबल से प्रबल बाधाओं को भी ऊनोदरी का अर्थ ऊनोदरी का अर्थ है- कम खाना। आप सोचेंगे कि थोडासा कम खाना भी क्या तपस्या कहलायेगी ? दो कौर ( कवल) भोजन में कम खा लिये तो कौनसा तीर मार ४ । भगवान महावीर जयंती स्मरणिका २००९Page Navigation
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