Book Title: Bhagavana  Mahavira aur unka Tattvadarshan
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 5
________________ प्रभावक और प्राचीनकला द्योतक थे । उनकी संख्या ३५० के लगभग थी। इनके चित्र कैमरे द्वारा लेना, उनके व्लाक तैयार कराना और रंगीन छपाई कराना अत्यन्त श्रमसाध्य, व्ययसाध्य और उपयोगसाध्य काम था। किन्तु प्राचीन कला का उसके मौलिक रूप में संरक्षण करने में ही कला की उपयोगिता है और इसीसे उसका सही मूल्यांकन किया जा सकता है । आधुनिक कला के बहाव में प्राचीन कला की जो उपेक्षा और विडम्बना हो रही है, उससे प्राचीन कला को प्रचार पाने में काफी बाधा पड़ी है। इसलिये भारत की प्राचीन कला का समुचित मूल्यांकन नहीं हो पाया है। जैन कलाकारों ने कला के प्रत्येक क्षेत्र में अपना पूरा सहयोग दिया है। वास्तु, शिल्प चित्र, भित्ति चित्र, काष्ठ चित्र कला सभी क्षेत्रों में जैन कलाकारों का योगदान परिमाण और सौन्दर्य, संख्या और अभिनवता सभी दृष्टियों से प्रशंसनीय रहा है किन्तु उसका अपेक्षणीय प्रचार भी नहीं हुपा और प्रचारित का सही मूल्यांकन भी नहीं हुआ है। प्राचार्यश्री ने प्रस्तुत ग्रन्थ के चित्रों को मौलिक रूप में प्रकाशित करके जैनकला की बहुत बड़ी सेवा की है और बे अपनी केवल इस सेवा के कारण ही कलाविदों की श्रद्धा के भाजन बन गये हैं। इन चित्रों को उनके मौलिक रूप में प्रकाशित करने में उसकी मौलिक सूझ-बूझ और कला के प्रति उनकी हादिक लगन के ही दर्शन होते हैं। अन्ध-परिचर प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'वर्धमान पुराण' है। इसके प्रतिपाद्य विषय का परिचय इसके नाम से ही हो जाता है। इसमें भगवान महावीर के पूर्व भबों और वर्तमान जीवन का परिचय दिया गया है। यह खड़ी बोलो का एक सरल काब्य-ग्रन्थ है। इसके रचयिता कवि का नाम कबिबर नवलशाह है । इस प्रन्थ में कुल १६ अधिकार दिये गये हैं। पुराण-परम्परा के अनुसार इसमें मंगलाचरण के अनन्तर वक्ता और श्रोता के लक्षण प्रथम अधिकार में दिये गये हैं। द्वितीय अधिकार में भगवान महावीर के पूर्व भवों में से एक भव के पुरुरवा भील द्वारा मद्य मांसादिक के परित्याग, फिर सौधर्म स्वर्ग में देव पद की प्राप्ति, तीसरे भव में चक्रवर्ती भरत के पुत्र के रूप में मरोत्रि को उत्पत्ति और उसके द्वारा मिथ्यामत की प्रवृत्ति, फिर ब्रह्म स्वर्ग में देव पर्याय की प्राप्ति, वहाँ से चयकर जटिल तपस्वी का भव, तत्पश्चात् सौधर्म स्वर्ग की प्राप्ति फिर अग्निसह नामक परिवाजक का जन्म, वहाँ से चयंकर तृतीय स्वर्ग में देव-पद, वहाँ से भारद्वाज ब्राह्मण, पाचवें स्वर्ग में देव पर्याय, फिर असंख्य वर्षों तक निम्न योनियों में भ्रमण यादि का वर्णन किया है। तृतीय अधिकार में स्थावर ब्राह्मण, माहेन्द्र स्वर्ग में देव, राजकुमार विश्वनन्दी और उसके द्वारा निदान बन्ध, दसवें स्वर्ग में देव', त्रिपृष्ठ नारायण, सातवें नरक में नारकी इन भवों का वर्णन है। चतुर्थ अधिकार में सिह पर्याय और चारण मनियों द्वारा संबोधन करने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति' फिर सौधर्म स्वर्ग में देव पर्याय, राजकुमारं कनकोज्ज्वल, सातवें स्वर्ग में देव जन्म, राजकूमार हरिण, दसवें स्वर्ग में देव पर्याय का वर्णन मिलता। पांचवें अधिकार में प्रियमित्र चक्रवर्ती के भव का तथा बारहवें स्वर्ग में देव पद की प्राप्ति का वर्णन है। छठवें अधिकार में राजा नन्द के भव में तीर्थकर प्रकृति का बन्ध तथा सोलहवें स्वर्ग में अच्युतेन्द्र पद की प्राप्ति का वर्णन है। सप्तम अधिकार में महाराज सिद्धार्थ के महलों में कुबेर द्वारा तीर्थकर जा नों की वर्षा, माता द्वारा सोलह स्वप्नों का दर्शन, महाबीर तीर्थकर का गर्भावतरण महोत्सव का वर्णन है। पाठवें और नौवें अधिकार में भगवान के जन्मकल्याणक महोत्सव का भावपूर्ण सरस वर्णन किया गया है। दसवें अधिकार में प्रभु के बाल्य-जीवन, यौवन में आकर वैराग्य और दीक्षा, कल राजा द्वारा भगवान को प्रथम आहार, चन्दना के हाथों से माहार लेने पर चन्दना का कष्ट दूर होला, घोर तप करते विविध प्रकार के उपसगोको सहते हुए केवलज्ञान की प्राप्ति का वर्णन है।

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