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समता-दर्शन : आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
महावीर के चतुर्विध संघ का मूलाधार ही समता है। दर्शन और व्यवहार के दोनों पक्षों में समता को मूर्त रूप देने का जितना श्रेय महावीर को है, उतना संभवतः किसी अन्य को नहीं। समता-दर्शन : प्राधुनिक प्ररिप्रेक्ष्य में :
युग बदलता है तो परिस्थितियां बदलती हैं। व्यक्तियों के सहजीवन की प्रणालियां बदलती हैं तो उनके विचार और आचार के तौर-तरीकों में तदनुसार परिवर्तन आता है। यह सही है कि शाश्वत तत्त्व में एवं मूल व्रतों में परिवर्तन नहीं होता। सत्य ग्राह्य है तो वह हमेशा ग्राह्य ही रहेगा, किन्तु सत्य प्रकाशन के रूपों में युगानुकूल परिवर्तन होना स्वाभाविक है। मानव-समाज स्थितिशील नहीं रहता बल्कि निरन्तर गति करता रहता है। गति का अर्थ होता है-एक स्थान पर टिके नही रहें तो परिस्थितियों का परिवर्तन अवश्यंभावी है।
मनुष्य एक चिन्तक और विवेकशील प्राणी है। वह प्रगति भी करता है तो विगति भी। किन्तु यह सत्य है कि वह गति अवश्य करता है। इसी गति-चक्र में परिप्रेक्ष्य भी बदलते रहते हैं । जिस दृष्टि से एक तत्त्व या पदार्थ को कल देखा था, शायद समय, स्थिति आदि के परिवर्तन से वही दृष्टि आज उसे कुछ भिन्न कोण से देखे और कोण भी तो देश, काल और भाव की अपेक्षा से वदलते रहते हैं । अतः स्वस्थ दृष्टिकोण यह होगा कि परिवर्तन के प्रवाह को भी समझा जाय तथा परिवर्तन के प्रवाह में शाश्वतता तथा मूल व्रतों को कदापि विस्मृत न होने दिया जाय । दोनों का समन्वित रूप ही श्रेयस्कर रहता है।
इसी दृष्टिकोण से समता-दर्शन को भी आज हमें उसके नवीन परिप्रेक्ष्य में देखने एवं उसके आधार पर अपनी आचरण-विधि निर्धारित करने में अवश्य ही जिज्ञासा रखनी चाहिये। आगे इसी जिज्ञासा से विचार किया जा रहा है । वैज्ञानिक विकास एवं सामाजिक शक्ति का उभार :
वैज्ञानिक साधनों के विकास ने मानव-जीवन की चली आ रही परम्परा में एक अद्भुत क्रान्ति की है । व्यक्ति की जान-पहिचान का दायरा जो पहले बहुत छोटा था, समय एवं दूरी पर विज्ञान की विजय ने उसे अत्यधिक विस्तृत बना दिया है। आज साधारण से साधारण व्यक्ति का भी प्रत्यक्ष परिचय काफी बढ़ गया है । रेडियो, टेलिवीजन एवं समाचारपत्रों के माध्यम से तो उसकी जानकारी का क्षेत्र समूचे ज्ञात विश्व तक फैल गया है।
इस विस्तृत परिचय ने व्यक्ति को अधिकाधिक सामाजिक बना दिया है, क्योंकि उपयोगी पदार्थों के विस्तार से उसका एकावलम्बन टूट सा गया और समाज का अवलम्बन पग-पग पर आवश्यक हो गया । अधिक परिचय से अधिक सम्पर्क और अधिक सामाजिकता फैलने लगी । सामाजिकता के प्रसार का अर्थ हुआ सामाजिक शक्ति का नया उभार ।
जब तक व्यक्ति का प्रभाव अधिक था, समाज का सामूहिक शक्ति के रूप में प्रभाव नगण्य था । अतः व्यक्ति की सर्वोच्च प्रतिभा से ही सारे समाज को किसी प्रकार का मार्ग