Book Title: Bhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 365
________________ भगवान् महावीर द्वारा प्रतिष्ठापित मूल्य ३४१ रहता। कार्य के आधार पर सामाजिक जीवन की व्यवस्था को महावीर स्वीकारते हैं। २. भगवान् महावीर ने जो मूल्य प्रतिष्ठापित किए, जो चिन्तन दिया, उनका सिद्धांत रूप में तो प्रतिष्ठापन युग-युग से चला आ रहा है। सिद्धान्त रूप में उस चिन्तन की ओर अाज भी विश्व उन्मुख है परन्तु व्यावहारिक रूप में मंजिल बहुत दूर है । मूल्य रूपी शिखर तो दृष्टिगत है परन्तु साधन रूपी पगडंडिया ओझल हैं। 'कथनी' में तो हम महावीर के मूल्यों को प्रतिष्ठित एवं प्रतिपादित करते हैं परन्तु 'करनी' में हम उन मूल्यों को आत्मसात नहीं कर पाए हैं। महावीर ने सुसंस्कृत एवं सुव्यवस्थित जीवन के लिए जो आचार-संहिता दी, उसकी बातें तो हम बढ़-चढ़ कर करते हैं परन्तु उसका पालन नहीं करते । महावीर के लिए संयम आंतरिक आनन्द की प्राप्ति है, अतीन्द्रिय स्वरूप की खोज है, अतीन्द्रिय रस की प्राप्ति है परन्तु आज के युग में संयम को दमन का पर्याय मान लिया गया है। तप महावीर के लिए अमृत के द्वार की सीढ़ी है परन्तु आज तप के नाम पर आत्मपीड़न प्रचलित है । यह सब होते हुए भी भगवान् महावीर के सिद्धांत आज के चिन्तन के मूल प्रेरणा स्रोत हैं; भगवान महावीर ने मनुष्य की गरिमा और गौरव की प्रतिष्ठा के लिए जो संघर्ष किया, आज प्रत्येक राष्ट्र उसकी प्रतिष्ठापना में लगा है । आज वर्ण-भेद और छुपाछूत के बंधन शिथिल हो रहे हैं । विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र भारत ने महावीर के अनेकान्त विचार को 'धर्म निरपेक्षता' के सिद्धान्त के रूप में मान्यता प्रदान की है। महावीर ने जो समता और अपरिग्रह का संदेश दिया वह आज की समाजवादी अर्थ-व्यवस्था में व्यवहत हो रहा है। ३. महावीर का आविर्भाव उस समय हुआ जब धर्म में आस्था क्षीण हो चली थी। अतः एक ऐसे दर्शन की आवश्यकता थी जो युग को सही निर्देश दे सके। इसी प्रकार आधुनिक युग में पाश्चात्य जीवन में ईसाई धर्म के प्रति विश्वास कम हो गया, जिसके फलस्वरूप एक ऐसे दर्शन की आवश्यकता अनुभव हुई जो उन्हें वह दे सके जो धर्म तथा विज्ञान नहीं दे सका है । सात्र तथा अन्य अस्तित्ववादी पाश्चात्य जीवन की इसी कमी की पूर्ति करते हैं। स्पष्ट है कि दर्शन को जीवन से पृथक् नहीं किया जा सकता । अन्य अस्तित्ववादियों के समान सार्च का भी यह विश्वास है कि दर्शन की समस्याएं मनुष्य के व्यक्तिगत अस्तित्व से ही उदित होती हैं—ऐसा व्यक्तिगत अस्तित्व जो स्वयं अपनी नियति का निर्माता है। महावीर का कर्म सिद्धान्त भी इन्हीं विचारों को व्यक्त करता है । महावीर के समान सार्व भी यह स्पष्ट करने को प्रयत्नशील हैं कि मनुष्य क्या है और क्या बन सकता है। महावीर तथा सात्र दोनों ही इस विषय में एक मत हैं कि केवल बौद्धिक जिज्ञासा की संतुष्टि ही महत्वपूर्ण नहीं है । दोनों के दर्शन का केन्द्र मनुष्य ही है । जैन-दर्शन सदृश सा का दर्शन भी केवल एक स्वतंत्र मानव का प्रतिवाद मात्र नहीं है वरन् उसे मोक्ष के मार्ग के रूप में प्रस्तुत किया गया है। आइन्सटीन ने यद्यपि प्रथम वार १६०५ में सापेक्षता का सिद्धांत प्रतिपादित किया तथापि महावीर ने इससे बहुत पूर्व-ईसा से छठी शताब्दी पूर्व में ही ज्ञान के सम्पूर्ण क्षेत्र में

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