Book Title: Bhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 363
________________ भगवान् महावीर द्वारा प्रतिष्ठापित मूल्य दृष्टिकोण से व्यापक रूप में मात्र व्यवहारगत हैं, जिनमें अनुष्ठान व रूढ़िगत विश्वास प्रमुख रूप से उभरते हैं । ३३६ धार्मिक अन्धश्रद्धा (fanaticism ) व प्रचार-प्रसार पर कुछ स्वस्थापित रुकावटों के कारण जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम रही है | इसके अल्पसंख्यक अनुयायीगरण संपन्न ही रहे हैं । धर्म के अपरिग्रह के महत्त्वपूर्ण पक्ष के अन्तर्गत यह विरोधाभास व्यक्ति को अपने धन के एक अंश को विभिन्न धार्मिक कार्यो में लगाने के लिए प्रेरित करता । इस प्रकार दान व सेवा की परम्परा के माध्यम से इस धर्म ने एक महत्त्वपूर्ण मानवीय पक्ष को प्रस्तुत कर सामाजिक हित की रक्षा की है । इसके साथ ही जैन धर्म की तपस्या का प्रभाव अनुयायियों में व्यापक रूप से प्रबल रहा है । उपवास व इससे सम्बन्धित ग्रात्म-नियंत्रण के अन्य माध्यमों में एक स्वस्थ अनुशासनीय परम्परा का निर्माण हुआ है । जीवन के व्यवहारगत कार्य-कलापों में 'इन प्रवृत्तियों ने सर्जनात्मक व फलदायक भूमिका निभायी है । २. भगवान् महावीर को आज २५०० वर्ष हो गए हैं । इस सुदीर्घ कालावधि में उनके द्वारा प्रतिपादित मूल्यों का व्यापक रूप से प्राध्यात्मिक स्तर पर प्रतिष्ठान व ग्रात्मसातीकरण नहीं हुआ है । फिर भी व्यक्तिगत स्तर पर अनेक लोग भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित मूल्यों से प्रभावित हो आत्म-विकास की ओर अग्रसर हुए हैं। आध्यात्मिक एवं मानवीय मूल्य आज के समाज में विगत शताब्दियों से अधिक विकसित व परिष्कृत हुए हैं; यह मानना शक्य है । सामाजिक विकास की प्रक्रिया का स्वरूप निर्धारण आधारभूत मूल्यों के अनुरूप नहीं हुआ है । देश, समाज व व्यक्ति भौतिक प्रगति के उपरान्त भी व्यक्तिगत व समूहगत पीड़ा तथा कमजोरियों से त्रस्त है | समाजगत दृष्टि से विकास की अपूर्णता होने पर भी व्यक्तिगत स्तरों पर प्राप्त अनेक उपलब्धियां जैन दर्शन व उसकी श्राध्यात्मिकता की महत्ता की परिचायक हैं । ३. व्यक्तिगत मोक्ष की परम्परा से हटकर संपूर्ण विश्व की चेतना के रूपान्तरण की श्रावश्यकता अधिक सार्थक व तर्कयुक्त प्रतीत होती है । विकासवाद के सिद्धान्त के नुरूप वर्तमान स्थिति मानवीय विकास की अन्तिम स्थिति नहीं है वरन् यह इसके परे के विकासक्रम की प्राध्यात्मिक संभाव्य का तार्किक पक्ष प्रस्तुत करती है, जिसके अन्तर्गत नवीन समाज व उच्चतर मानव की संभावना है । ४. नवीन समाज-रचना में भगवान् महावीर की विचारधारा का अत्यन्त महत्त्व है । विश्व के सीमित साधनों में अपरिग्रह के सिद्धान्त से स्वेच्छिक साम्यवाद की स्थापना की जा सकती है । मनुष्य के जीवन की भौतिक क्लेश- कठिनाइयों के कारण ही ग्राज का मानव ऊंचनीच, वर्ग व स्वार्थ-समूहों में विभक्त है । अतः वह इनमें ग्रावद्ध होने से मात्र सतही जीवन व्यतीत करता है । इस कारण वह अपनी क्षमताओं व आकांक्षाओं के प्रति अनभिज्ञ रहता है । अपरिग्रह के सिद्धान्त की प्रस्थापना से व्यक्ति व समूह निम्न कोटि के स्वार्थ व ईर्ष्या से बच जायेंगे व अपनी शक्ति को ऊर्ध्व भूमिका के स्तर पर लगा सकेंगे । इससे मानवेतर लक्ष्यों की प्राप्ति सहज हो सकेगी। wrong turque मृ 1

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