Book Title: Bhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 362
________________ ३३८ परिच में का नियन्त्रण भी ब्रह्मचर्य के पालन विचारarरायों तथा मत-मता haante केन न संभव है । जैन दर्शन का स्याहाद या धान्नवाद का वियोग भारत में उ दृष्टिकोण के विकास में सहायक रहा है और गारी भी मन की सापेक्षता को स्वीकार करने के बाद जीवन के किसी भी में पद अनुदारता के लिए गुंजा नहीं रहती । विशेष (९) डॉ० नरेन्द्रकुमार सिंघी ५. भगवान् महावीर की शिक्षाओं मे मनेश नागर वि काल की सीमाओं से नहीं है। महावीर परिनिर्वाण हो परम तत्वों का उद्घाटन मानव नादि के लिए प्रेम होता है। के निक एवं बुद्धिवादी युग में जैन धर्म मानव के लिए विशेष आना है। बुद्धिवादी व्यक्ति ऐसे धर्म की कामना करता है जो दिन में मुक्त हो और जो केवल वृद्धिवाद एवं मदाचार पर आधारित हो । धर्म की अपेक्षा करता है जो समस्त मानवता के सर एवं एक परवान् महावीर का विचार तत्त्व जटिल कर्मकाण्डों तथा मे एवं बुद्धिवाद पर आधारित है। यही नहीं यह तत्व समस्त मानव जाति विरोधी विवा कराने के लिए कृतसंकल्प है । याज का नंमार विभिन्न तथा वादों के संघर्षण से पीड़ित है । ऐसी सहिष्णुतापरक समन्वयात्मक प्रवृत्ति निरदेह प्रस्तुत कर सकती है | यही नहीं जैन धर्म का सन्देश परमाणु युद्ध की विभीषिका से सकता है । में Birtan के fan में नि ग्रादर्श मानव समाज की रचना का पार नया हस्तित्व एवं का मानवता के लिए आज भी भाषाप्रद हो सदाचार में शुक १. जैन धर्म की व्याख्या एवं विवेचना वौद्धिक-तार्किक स्तर पर उनके की गूढ़ता के संदर्भ में अप्रत्याशित रूप से पर्याप्त दृष्टिगोचर होती है । जिन मनीषियों एवं विज्ञों ने जैन धर्म के विभिन्न पहलुओंों की विवेचना की है, उससे इस बात की पुष्टि होती है कि बौद्धिक स्तर पर इसके दर्शन व तर्क की शक्ति विश्व के वैज्ञानिक स्वरूप को व्याख्यायित करने में सक्षम है | किसी भी धर्म के ग्राध्यात्मिक महत्त्व को उसके उपासकों की संख्या से प्रांकना धर्म के गहनतम व गुह्य अर्थ को नकारना है । प्रायः किसी भी धर्म के अनुयायियों को संख्या उसके प्रचार-प्रसार व उसको प्रदत्त राजाश्रय पर निर्भर करती है । श्रनुयायीगरण सामान्यरूप से धर्म के विश्वासों व अनुष्ठानों के पक्षों को महत्त्व देकर, उसके प्राध्यात्मिक व दर्शनशास्त्री पक्ष को समझने का प्रयास नहीं करते । सामाजिक व सांसारिक पक्ष उनके इतने प्रवल हो जाते हैं कि धर्म, मात्र जाति की भांति, जन्मतः एक समूह में एकात्मता का बोध प्रस्तुत करता है जो व्यवहारगत लौकिक कार्य-कलापों में उपयोगी सिद्ध होता है । सभी धर्म उस

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