________________
विश्व-शांति के सन्दर्भ में भगवान महावीर का सन्देश
महावीर का अहिंसा-सिद्धान्त वड़ा सूक्ष्म और गहन है। उन्होंने किसी प्राणी की हत्या करना ही हिंसा नहीं माना, उनकी दृष्टि में तो मन में किये गये हिंसक कार्यो का समर्थन करना भी हिंसा है । यदि अहिंसा की इस भावना को व्यक्ति किंचित् भी अपने हृदय में स्थान दे तो फिर अशांति और प्राकुलता हो ही क्यों ?
२. समतावाद :
अहिंसा-सिद्धान्त का ही विधायक तत्व है समता, विपमता का अभाव । दुनिया में कोई छोटा-बड़ा नहीं है, सभी समान हैं। समतावाद के इस सिद्धान्त द्वारा महावीर ने जातिवाद, वर्णवाद और रंगभेद का खण्डन किया और बताया कि व्यक्ति जन्म या जाति से बड़ा नहीं है । उसे बड़ा बनाते हैं उसके गुण, उसके कर्म । कर्म से ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनता है । महावीर के समय में वर्ण व्यवस्था बड़ी कठोर थी। शूद्रों को समाज में अवम और निकृष्ट माना जाता था । नारी की भी यही स्थिति थी। उसके लिए साधना के मार्ग बन्द थे। महावीर ने इस व्यवस्था के विरुद्ध क्रांति की। हरिकेशी जैसे शूद्र कुलोत्पन्न उनके माधु संघ में थे और चन्दनवाला जैसी नारी को न केवल उन्होंने दीक्षित ही किया वरन् साध्वी संघ का सम्पूर्ण नेतृत्व भी उसे सौंपा। वे स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु उनके अनुयायियों में ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र सभी सम्मिलित थे ।
__महावीर के इस समता-सिद्धान्त की आज भी विश्व को बड़ी जरूरत है। भारत में वर्ण-व्यवस्था में ग्राज भले ही थोड़ी ढील आई हो परन्तु दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका में काले-गोरे का भेद आज भी विद्यमान है । नीग्रो आज भी वहां हीन दृष्टि से देखा जाना है। धर्म, सम्प्रदाय और जाति के नाम पर आज भी विश्व में तनाव और भेद-भाव है। यदि महावीर के इस सिद्धान्त को सच्चे अर्थों में अपना लिया जाये तो यह विश्व सबके लिए आनन्दस्थली और शांतिधाम बन जाये । ३ अपरिग्रहवाद :
२०वीं शताब्दी में शांति का क्षेत्र बड़ा व्यापक हो गया है। आज व्यक्तिगत शांति के महत्व से अधिक महत्व विश्वशांति का है : इस सामूहिक शांति की प्राप्ति के लिए मानव ने अनेक साधन ढूंढ निकाले हैं लेकिन अब तक उसे शांति नहीं मिल पाई है। इसका मूल कारण है-अार्थिक वैषम्य ।
. भगवान् महावीर ने इस विषमता को दूर करने का जो सूय दिया, वह आज भी प्रभावकारी है। उनका यह सिद्धान्त अपरिग्रहवाद के नाम से जाना जाता है । अपरिग्रहवाद से तात्पर्य है-ममत्व को कम करना, अनावश्यक संग्रह न करना। संसार में झूठ, चोरी. अन्याय, हिंसा, छल, कपट, आदि जो पाप हैं, उनके मूल में व्यक्ति की परिग्रह की भावना अधिकाधिक उपार्जन की प्रबल इच्छा ही है। इस प्रबल इच्छा को सीमित रखना ही अपरिग्रह है।
इन इच्छाओं पर अंकुश लगाने का एक बहुत ही सरल उपाय भगवान् महावीर ने बताया। उन्होंने कहा-आवश्यकता से अधिक संग्रह मत करो। अपनी आवश्यकताओं को