Book Title: Bhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 340
________________ ३१६ परिचर्चा ५. भगवान महावीर के २५००वें परिनिर्वाण महोत्सव पर आप व्यक्ति, समाज, गप्ट्र और विश्व के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे ? विचारक विद्वान् (१) आचार्य श्री नानालालजी म० सा० : १. भगवान् महावीर द्वारा प्रतिष्ठापित मूल्यों के परिवोध के लिए हमें महावीर युगीन संस्कृति पर एक विहंगम दृष्टि दौड़ानी होगी। जब भगवान महावीर अपनी शैशवावस्था को पार कर युवावस्था में प्रवेश करते हैं, सहसा उनकी दृष्टि तत्कालीन सामाजिक परिवेश पर केन्द्रित हो जाती है । जब वे दार्शनिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक विषमताओं में परिवेष्ठित मानव-मानव को टुकड़ों में विभक्त देखते हैं, उनकी आत्मा समतामय अहिंसक उत्क्रान्ति के लिए चीलार कर उठती है । जव उनकी चिन्तन-धारा तत्कालीन तथाकथित सामाजिक व्यवहारों पर केन्द्रित होती है तो उनका अनन्त कारुणिक हृदय तड़प कर रो उठता है । पशु-पक्षी तो रहे दर किनार मानव-मानव के प्रति कितनी हीन, तिरस्कार एवं कृत्रिम जातिगत ऊंच-नीच की भावनाओं ने घर कर लिया है । वर्ण और लिंग भेद के कारण प्रखण्ड मानवता टुकड़ेटुकड़े में विभक्त हो रही है । विपमता एवं वैमनस्य मानव-मन को घेरे खड़ा है। सामान्य जन-मानस किंकर्तव्य विमूढ़ सा बन रहा है। नारी जीवन के प्रति कितनी हीन एवं घृणित भावनाएं घर कर गई यह "स्त्री शूद्री ना धोयेतां" के सूत्रों से स्पष्ट हो जाता है। सामाजिक विषमता ही नहीं दार्शनिक एवं धार्मिक जगत् भी पर्याप्त अंधकार में भटकने लगा था । धर्म के नाम पर भौतिक सुख-सुविधानों के लिये एवं अपनी नगण्य सी स्वार्थपूर्ति हेतु अश्वमेघ, नरमेघ जैसे क्रूर हिंसा-काण्डों के लिए तथाकथित धर्म गुरुनों ने सहर्प अनुमति ही नहीं, प्रेरणा देना प्रारम्भ कर दिया था और उसी के फल स्वरूप "स्वर्गकामो यजेत्" और "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" के सिद्धान्त प्रतिष्ठित हुए। देवीदेवताओं के नाम पर प्राणी संहार होने लगा। यज्ञ-याग के अतिरिक्त धर्म नाम का कोई तत्त्व नही रह गया था। ___ दार्शनिक सिद्धान्तों के कदाग्रह के कारण वैषम्य एवं विद्वप की जड़े अत्यन्त गहरी जम गई थीं। भगवान महावीर के समय में अनेक दार्शनिक परम्पराएं थीं। एक-अनेक, जड़-चेतन, सत असन्, नित्य-अनित्य, शाश्वत अशाश्वत् आदि का एकान्तिक आग्रह उनकी विशेषता थी। महावीर ने इन सभी पहलुओं पर गहरा चिन्तन किया और पाया कि इन सभी क्षेत्रों में व्याप्त विपमताओं को जड़ स्वार्थलिप्सा एवं एकान्तिक आग्रह- ही है। उन्होंने तत्कालीन सभी सामाजिक, वार्मिक एवं दार्शनिक मूल्यों में सर्वतोभावेन परिवर्तन अपेक्षित समझा और उनके स्थान पर नये मूल्यों की स्थापना हेतु घोर विरोध के बावजूद संघर्ष में उत्तर पड़े । वे नवीन मूल्य थे-मानव-मानव ही नहीं प्राणिमात्र में सम्दृष्टि, वर्ण एवं लिंग

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