Book Title: Bhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 353
________________ भगवान् महावीर द्वारा प्रतिष्ठापित मूल्य ३२६ अपने विचारों के अनुसार दूसरे को जीने के लिए बाध्य करना है जिसे विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि से अहिंसा नहीं माना जा सकता। आइंस्टीन के सापेक्षतावाद और महावीर के स्याद्वाद में भी बहुत साम्य दिखाई देता है। परन्तु सापेक्षतावाद का सम्बन्ध भौतिक जीवन के सत्यों से है जबकि स्याद्वाद के क्षेत्र में पुद्गल के साथ-साथ विचारों का क्षेत्र भी पा जाता है । आध्यात्मिक जीवन के विकास के लिए स्याद्वादी दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। दूसरे सापेक्षतावाद का वल वस्तुओं की 'सापेक्षिक स्थिति' पर है । वह किसी की नितांत निरपेक्ष सत्ता स्वीकार नहीं करता जवकि स्याद्वाद एक ही वस्तु के अथवा पुद्गल के अनेक रूप स्वीकार करता है । उसका वल सत्ता की सापेक्षता पर नहीं है । इन दोनों दृप्टियों को भी एक नहीं माना जा सकता। ४. मै महावीर को मूल रूप में समाज रचना के आदर्श स्थापित करने वाला व्यक्ति नहीं मानता परन्तु वाद के प्राचार्यों ने व्यक्तिगत साधना के मार्ग को एक सामूहिक धर्म का रूप दिया । और इस प्रकार महावीर के मूल सिद्धान्तों को कुछ सरल करके सामाजिक जीवन के लिए उपयोगी बनाया। ५. भगवान महावीर के इस परिनिर्वाण महोत्सव पर यही सन्देश देना चाहूंगा कि हर व्यक्ति, समाज और राष्ट्र किसी भी बंधी बंधाई चिंतन धारा का अन्धानुकरण न करके वह युग के अनुरूप अपने जीवन आदर्शो और नैतिक मानदण्डों का निर्माण करे । जव तक हमें भावी जीवन की परिस्थितियों का सम्यक् ज्ञान न हो तब तक भविष्य के लिए कोई निश्चित सन्देश देना एक प्रवंचना मात्र होगी। (४) डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल : १. भगवान् महावीर तीर्थंकर थे। तीर्थकर स्वयं तो परिनिर्वाण प्राप्त करते हो है किन्तु अपने उपदेशों के द्वारा वे जगत् को भी शाश्वत कल्याण के मार्ग पर लगाते है। उनकी जीवन साधना दूसरों के लिए प्रेरणा-स्रोत बनती है। महावीर के युग में बाह्य क्रियाकांडों का बहुत जोर था। धर्म के नाम पर अधर्म होता था। सारे समाज पर एक वर्ग विशेष का अधिकार था । जो केवल अपनी स्वार्थपूर्ति में लगा हुआ था। वातावरण में इतनी अशांति थी कि गरीब और अमीर दोनों का ही दम घुटने लगा था। लोकभाषा का चारों ओर निरादर हो रहा था और वैदिक भाषा पर ब्राह्मणवर्ग का एकाधिकार था। आत्मिक शांति मृग-तृष्णा के वरावर हो गई थी। राजकुमार अवस्था में महावीर ने जगत् में व्याप्त अशांति को देखा और जब वे महाश्रमण वन गये तब उन्होंने मुक्ति के उपायों पर गहराई से चिंतन किया और अन्त में १२ वर्प की कड़ी तपोसाधना के पश्चात् उन्होंने जिन मूल्यों की प्रतिष्ठा करनी चाही उनमें अहिंसा को जीवन की प्रत्येक गतिविधि में सर्वोपरि स्थान दिया। क्योंकि विश्वकल्याण को जड़ अहिंसा है, शांति एवं सुख का यह एक मात्र आधार है। जिसने भी

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