Book Title: Bhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 344
________________ परिचर्चा नहीं अपनाया । इन वातों की पुष्टि विनोवा जैसे सन्त और काका कालेलकर जैसे विद्वान् भी करते हैं । ३२० साम्प्रदायिकता उन्माद है । इतिहास साक्षी है कि उसके कटु फल संसार को चखने को मिले । धर्म के नाम पर लाखों नहीं करोड़ों को मौत के घाट उतारा गया । क्योंकि साम्प्रदायिक यही कहेगा कि मेरे सम्प्रदाय में श्राश्रो, मेरे उपास्य देव की उपासना करो तुम्हारी मुक्ति होगी अन्यथा तुम्हारी दुर्गति होगी । साम्प्रदायिक व्यक्ति अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा करेगा, दूसरों के दोप देखेगा और दूसरों की निन्दा करेगा । उसका दृष्टिकोण एकान्तिक होगा, वह दूसरे की बात समझने का प्रयत्न ही नही करेगा । वह दूसरों को ग्रपने सम्प्रदाय में लाने के लिए जुल्म जवर्दस्ती करना धर्म मानेगा । 4 भगवान् महावीर का दृष्टिकोण व्यापक था । उन्होंने ग्रात्मोपम्य दृष्टि अपनाई थी इसलिए उनकी परम्परा में धर्म मुख्य रहा, सम्प्रदाय गौरण | उनकी दृष्टि में मोक्ष या पूर्ण विकास का अनुबन्ध सम्प्रदाय के विधि-विधानों के साथ नही, पर धर्म के साथ माना गया था । वे ‘अश्रुत्वा केवली' का सिद्धान्त स्थापित कर साम्प्रदायिक दृष्टि को उच्च स्थिति तक ले गये थे । 'ग्रश्रुत्वा केवली' वे होते हैं जिन्होंने धर्म न भी सुना हो तो भी अपनी निर्मलता के कारण केवली पद तक पहुंच सकते है, बशर्ते कि वे धर्म से अनुप्राणित हों । इसके लिए किसी विशिष्ट साम्प्रदायिक मान्यता को मानना जरूरी नहीं है । 'श्रुत्वा केवली' की तरह 'प्रत्येक बुद्ध' भी किसी सम्प्रदाय या धर्म परम्परा से प्रभावित होकर प्रव्रजित नहीं होते पर अपने ज्ञान से ही पूर्णत्व को प्राप्त करते है । भगवान् महावीर ने शाश्वत धर्म यह कहा था कि किसी प्रारणी को मत मारो, उसे परिताप मत दो, उसकी स्वाधीनता में वाधा मत पहुंचाग्रो, सबके साथ संयम का व्यवहार करो, 1 ✓ - उनके इन उदार विचारों की कई ग्राचार्यो ने उपासना कर जैन शासन का गौरव बढ़ाया और देश में असाम्प्रदायिक दृष्टिकोण विकसित किया । इस सम्बन्ध में निम्न कथन द्रष्टव्य है こ (क) महावीर के प्रति मेरा पक्षपात नहीं है और कपिलादिक के साथ मेरा द्वेष नही है | जिसका वचन युक्तियुक्त होगा, वही स्वीकार्य है । - (ख) भव-वीज को अंकुरित करने वाले रागद्वे पादि जिनके क्षीण हो चुके है, उसे 'मेरा नमस्कार है। वह ब्रह्मा, विष्णु, हरि या जिन कोई भी हो । (ग) में अपने आगमों को अनुराग मात्र से स्वीकार नहीं कर रहा हूं, के श्रागमों का द्वेप मात्र से अस्वीकार नहीं कर रहा हूं, किन्तु स्वीकार और पीछे मेरी माध्यस्थ दृष्टि है । और दूसरों स्वीकार के 7 1 - जैन धर्म इन २५०० वर्षो में भारत ही नहीं मध्यपूर्व देशों में भी अपना प्रभाव

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