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यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः । अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते || यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः । अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्ध्यनुशासनम् ||
दार्शनिक संदर्भ
कठो० २/३/१४
कठो० २/३/१५
इन दोनों श्लोकों का अर्थ जैन दर्शन की शब्दावली में कहा जाय तो यही है कि समस्त कामनाओं से मुक्ति नये कर्मों का निरोध है और हृदय की समस्त ग्रन्थियों का छेदन पूर्व कर्मो के संस्कारों की निर्जरा है । मरणधर्मा मनुष्य की अमरता निर्जरा और संवर से ही संभव है | मानव-व्यक्तित्व का चरम विकास अमरत्व की उपलब्धि है । इस अमृतत्व को जिसने पा लिया है, वही निर्ग्रन्थ है आत्मन है ।
निर्ग्रन्यता ही पूर्ण विकास :
देहात्मवादियों के लिए भी 'निर्ग्रन्थता' की उपलब्धि ही उनके व्यक्तित्व विकास का उच्चतम रूप है । यहां निर्ग्रन्थता का अर्थ ग्रन्थियों ( Complexes ) से मुक्ति है । मानव-मन-मस्तिष्क की कोटि-कोटि ग्रन्थियों के मूल में हृदयाश्रित कामनाएं हैं। कुछ ग्रन्थियां जन्मजात होती हैं, कुछ इस जीवन की अपूर्व कामनाओं से उद्भुतः, परन्तु निर्मल मन-मस्तिष्क की उपलब्धि तो दोनों प्रकार की ग्रन्थियों की मुक्ति से ही संभव है । उच्चता श्रर हीनता की ग्रन्थियों से मुक्ति हो तो समत्व -साधना है । यह स्पष्ट है कि 'निर्ग्रन्थ' महावीर के युग में भी मानव-व्यक्तित्व के विकास का पूर्ण प्रतीक था और ग्राधुनिक संदर्भ में भी यह उतना ही सत्य है ।
निर्जरा और संवर के डग बढ़ते चलें :
पंच विकार या कषाय ही संसार या कर्म बन्ध के कारण हैं, ये ही ग्रन्थियों के भी कारण हैं । केवल काम ही नहीं, क्रोधादि ग्रन्य कषाय भी संयम या निर्जरा के अभाव में ग्रन्थियों के जनक वनते हैं । केवल रुपये के संग्रह के लिए चारित्रिक पतन की गहरी खाई की ओर दौड़ता व्यक्ति मानव, शक्ति-संग्रह के लिए अणु-विस्फोट करते राष्ट्र, शक्ति-प्रदर्शन के लिए सामान्य - जनता पर बमों की अनवरत वर्षा करने वाले शासक क्या व्यक्ति या राष्ट्रीय स्तर पर किसी न किसी प्रकार की ग्रन्थि से ग्रस्त नहीं हैं ? अपने अस्तित्व के खो जाने के भय से ग्रस्त समाज, राष्ट्रीय या मानवतावादी धारा के साथ एक रस नहीं हो पाते, क्या इसके पीछे एक 'ग्रन्थि ' नहीं है ? सच्चाई तो यह है कि ग्राज का मानव सामान्य मानवीय गुणों को भूल कर तिर्यक् योनिज श्रेणियों के अधिक समीप पहुंचता जा रहा है । पंचविकार उस पर सवार हैं । इसका मुख्य उदाहरण वह विज्ञान है जो अपने ही स्रष्टा के सिर पर सवार हो बैठा है । इस अर्थ प्रधान भौतिक युग में ग्रन्थि ग्रस्त मानव व्यक्ति रूप हो या समाज रूप, राष्ट्र रूप हो या विश्व रूप, अपने व्यक्तित्व विकास के लक्ष्य को ही नहीं भुला बैठा है उसके मुल्य सावन निर्जरा और संवर को भी धीरे-धीरे खो रहा है ।
इस युग में 'स्व' की साधना इतनी प्रबल हो उठी है कि आत्म-ज्ञान, आत्म