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अहिंसा के आयाम : महावीर और गांधी
• श्री यशपाल जैन
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अहिंसा को श्रेष्ठता :
मानव-जाति के कल्याण के लिए अहिंसा ही एक मात्र साधन है, इस तथ्य को आज सारा संसार स्वीकार करता है, लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि अहिंसा की श्रेष्ठता की ओर प्राचीन काल से ही भारतवासियों का ध्यान रहा है। वैदिक काल में हिंसा होती थी, यनों में पशुओं की बलि दी जाती थी, लेकिन उस युग में भी ऐसे व्यक्ति थे, जो अनुभव करते थे कि जिस प्रकार हमें दुःख-दर्द का अनुभव होता है, उसी प्रकार दूसरे प्राणियों को भी होता है, अतः जीवों को मारना उचित नहीं है। आगे चलकर यह भावना
और भी विकसित हुई । “महाभारत के शांति-पर्व" में हम भीष्म पितामह के मुंह से सुनते हैं कि हिंसा अत्यन्त अनर्थकारी है। उससे न केवल मनुष्यों का संहार होता है, अपितु जो जीवित रह जाते हैं, उनका भी भारी पतन होता है । उस समय ऐसे व्यक्तियों की संख्या कम नहीं थी, जो मानते थे कि यदि हिंसा से एकदम वचा नहीं जा सकता तो कम से कम उन्हें अपने हाथ से तो हिंसा नहीं करनी चाहिये । उन्होंने यह काम कुछ लोगों को सौंप दिया जो बाद में क्षत्रिय कहलाये । ब्राह्मण उनसे कहते थे कि हम अहिंसा का व्रत लेते हैं, हिंसा नहीं करेंगे, लेकिन यदि हम पर कोई अाक्रमण करे अथवा राक्षस हमारे यज्ञ में वाधा डालें, तो तुम हमारी रक्षा करना । विश्वामित्र ब्रह्मपि थे, वनुर्विद्या में निष्णात थे, पर उन्होंने अहिंसा का व्रत ले रखा था। अपने हाथ से किसी को नहीं मार सकते थे। उन्होंने राम-लक्ष्मण को धनुप-बाण चलाना सिखाया और अपने यन की सुरक्षा का दायित्व उन्हें सौंपा।
मारने की शक्ति हाथ में आ जाने से क्षत्रियों का प्रभुत्व बढ़ गया। वे शत्रु के आने पर उसका सामना करते । धीरे-धीरे हिंसा उनका स्वभाव बन गया । जव शत्रु न होता तो वे आपस में ही लड़ पड़ते और दुःख का कारण बनते । परशुराम से यह सहन न हया। उन्होंने धनुष-बाण उठाया, फरसा लिया और संसार से क्षत्रियों को समाप्त करने के लिए निकल पड़े । जो भी क्षत्रिय मिलता, उसे वे मौत के घाट उतार देते। कहते हैं, उन्होंने इक्कीस वार भूमि को क्षत्रियों से खाली कर दिया, लेकिन हिंसा की जड़ फिर भी बनी रही । विश्वामित्र अहिंसा के अती थे, वे स्वयं हिंसा नहीं करते थे, पर दूसरों से हिंसा