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वैज्ञानिक संदर्भ
प्रधान प्रश्न रहा है । विभिन्न दर्शनों ने इस पर विचार किया है और अपना-अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है।
_____ बौद्ध दर्शन के अनुसार चित्त की परम्परा का अवरुद्ध हो जाना, आत्मा की चरम स्थिति है । इस मान्यता के अनुसार दीपक के निर्वाण की भांति प्रात्मा शून्य में विलीन हो जाता है।
कणाद मुनि का वैशेपिक दर्शन आत्मा की अन्तिम स्थिति मुक्ति स्वीकार करता है, पर उसकी मुक्ति का स्वरूप कुछ ऐसा है कि उसे समझ लेने पर अन्तःकरण में मुक्ति प्राप्त करने की प्रेरणा जागृत नहीं होती। कणाद ऋपि के मन्तव्य के अनुसार मुक्त आत्मा ज्ञान और सुख से सर्वदा वंचित हो जाता है । जान और सुख ही आत्मा के असाधारण गुगा हैं और जब इनका ही समून उच्छेद हो गया तो फिर क्या प्राकर्षण रह गया मुक्ति में ?
संसार में जितने अनादिमुक्त एकेश्वरवादी सम्प्रदाय हैं, उनके मन्तव्य के अनुसार कोई भी आत्मा, ईश्वरत्व की प्राप्ति करने में समर्थ नहीं हो सकता। ईश्वर एक अद्वितीय है । जीव जाति से वह पृथक् है । संसार में अधर्म की वृत्ति और धर्म का ह्रास होने पर उसका संसार में अवतरण होता है । उस समय वह परमात्मा से आत्मा का रूप ग्रहण करता है । जैन धर्म अवतावाद की इस मान्यता को स्वीकार नहीं करता। जैन धर्म प्रत्येक आत्मा को परमात्मा बनने का अधिकार प्रदान करता है। और परमात्मा बनने का मार्ग भी प्रस्तुत करता है, किन्तु परमात्मा के पुनः भवावतरण का विरोध करता है। इस प्रकार हमारे समक्ष उच्च से उच्च जो आदर्श संभव है, उसकी उपलब्धि का आश्वासन और पथप्रदर्शन जन धर्म से मिलता है । वह आत्मा के अनन्त विकास की संभावनाओं को हमारे समक्ष उपस्थित करता है । जैन धर्म का प्रत्येक नर को नारायण और भक्त को भगवान्, वनने का यह अधिकार देना ही उसकी मौलिक मान्यता है । व्यक्ति की महत्ता गुरणों से :
जैन धर्म सदैव गुण पूजा का पक्षपाती रहा है । जाति, कुल, वर्ण अथवा वाह्य वेष के कारण वह किसी व्यक्ति की महत्ता अंगीकार नहीं करता। भारतवर्ष में प्राचीन काल से एक ऐसा वर्ग चला आता है जो वर्णव्यवस्था के नाम पर, अन्य वर्गों पर अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए तथा स्थापित की हुई सत्ता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए एक अखण्ड मानव जाति को अनेक खंडों में विभक्त करता है । गुण और कर्म के आधार पर, समाज की सुव्यवस्था का ध्यान रखते हुए विभाग किया जाना तो उचित है, जिसमें व्यक्ति के विकास को अधिक-से-अधिक अवकाश हो परन्तु जन्म के आधार पर किसी प्रकार का विभाग करना सर्वथा अनुचित है।
एक व्यक्ति दुःशील, अज्ञान और प्रकृति से तमोगुणी होने पर भी अमुक वर्ण वाले के घर में जन्म लेने के कारण समाज में पूज्य, आदरणीय, प्रतिष्ठित और ऊंचा समझा जाय, और दूसरा व्यक्ति सुशील, ज्ञानी, और सतोगुणी होने पर भी केवल अमुक कुल में जन्म लेने के कारण नीच और तिरस्करणीय माना जाय, यह व्यवस्था समाज-घातक है ।