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वैज्ञानिक संदर्भ
विश्व के धर्माध्यात्मसमर्थक कैसे एक मत हों और तब इस स्थिति में ग्राप्त वाक्यों पर विश्वास त्यागना ही पड़ेगा |
एक बात यह भी है कि जव विज्ञान के क्षेत्र में 'सत्य' के निकट अतीत को अपेक्षा वर्तमान के श्रम से 'भविष्य' में ही पहुँचेंगे - यह मान्यता सही है तव धर्म के क्षेत्र में यह क्यों मान लिया जाय कि 'सत्य' का साक्षात्कार अतीत में हो चुका, श्रव भविष्य उस दृष्टि से रिक्त है ? विश्व एक नियम में बंधा हुआ है, विज्ञान इसी नियम के शासन पर बल देता है । इन्हीं नियमों का यह अनुशीलन करता है। जिस दिन सारे नियम ज्ञात हो जायेंगे, उस दिन 'रहस्य' नाम की कोई वस्तु न होगी । यद्यपि क्वाण्टम् सिद्धान्त में अनिर्धारणात्मकता की स्वीकृति से 'नियम' पूर्णनः और प्रात्यंतिक सत्य नहीं माना गया है तथापि विज्ञान प्राकृतिक व्यवहारों में निहित इस फ्री विल या स्वेच्छारिता के कारण अपना निर्धारणात्मक प्रयत्न नहीं छोड़ता बल्कि और ग्राशा से प्रज्ञात कारणों की संगति खोजना चाहता है । विज्ञान जब यह मानता है कि सब कुछ नियम की शृंखला में बद्ध है तव किसी को 'कृपा' या 'स्वातन्त्र्य' का प्रश्न ही नहीं उठता । ईश्वर की कृपा और विज्ञान की नियमबद्धता परस्पर विपरीत है ।
विज्ञान की विभिन्न शाखाओं की उपलब्धियों के आलोक मे चेतना के अतिरिक्त किसी शाश्वत श्रात्मा की भी सिद्धि नहीं हो पाती फिर यह भी कहा जाता है कि जीवन की इस विकास शृंखला में मानव ही अंतिम विकास क्यों माना जाय ? धर्माध्यात्ममूलक जिन जीवन मूल्यों के लिए हम संघर्षशील हैं, बदलते हुए और विकासोन्मुख समाज में रूपों और आकारों की वनने विगड़ने वाली ब्रह्माण्ड प्रक्रिया में, वे कितने क्षणिक हैं- - स्पष्ट है । विज्ञान का निष्कर्ष है कि मन, भावना और आत्मा जीवित मस्तिष्क के ही ग्रभिव्यक्त रूप है - वैसे ही जैसे ज्वाला जलती हुई मोमबत्ती का श्रभिव्यक्त रूप । इस मान्यता के अनुसार मस्तिष्क के नष्ट होते ही सब कुछ नष्ट हो जायगा । कहां के धर्म-प्राध्यात्म और कहां के तन्मूलक जीवन मूल्य | विज्ञान मानता जा रहा है कि प्रकृति की इतर चीजों की भांति मानव भी उसके विकास का एक अंग है । फ्रायड मानता है कि धर्म मानव समाज के मनोवैज्ञानिक विकास की एक विशेष सीढ़ी के साथ जुड़ा हुआ भ्रम है । समाज उसे उखाड़ के फेंकने की दिशा में गतिशील है | कहां तक विवरण दिया जाय, विश्वास की विभिन्न समस्याओं ने जो उपलब्धियां की हैं - वे सवकीतव धर्माध्यात्म के विपक्ष में जाती हैं ।
तकनीकी विकास से उत्पन्न समस्याएं :
जहां तक तकनीकी विकास का संबंध है जौर उनसे उत्पन्न समस्याओं की बात है प्राज का प्रत्येक मानव उसे महसूस कर रहा है। यंत्र मानव का काम छोनता जा रहा है और मानव भावनाओं को खोता हुत्रा यांत्रिक होता जा रहा है । स्थल, जल तथा नभ - सर्वत्र प्रयोगशालाएं स्थापित हो रही हैं। बाहरी दूरी समाप्त होती जा रही है, पर मानव-मानव के मध्य दूरी बढ़ती जा रही है । लोग भूतार्थवाद के आलोक में सामाजिक से 'व्यक्ति' होते जा रहे हैं । 'एक' से अनेक' हो रहे हैं, अभेद से भेद की ओर बढ़ तथा परिवार के ही वरातल पर नहीं, व्यक्ति के स्तर पर भी
रहे हैं । विश्व, राष्ट्र, समाज तिर और बड़ ग्रलग-लग