Book Title: Bhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 293
________________ आधुनिक युग और भगवान् महावीर २६ε वह श्रवश्रांतरजगत् की खोज में लगा है। दिमाग और मन की शोध भी वह कई वर्षो से कर रहा है किन्तु जो रहस्य खुल रहे हैं उनसे वह संतुष्ट नहीं है । इन दिमाग और मन दोनों से भी परे कोई तत्व है उसे ही खोजना सव वैज्ञानिकों ने ठान लिया है । वैज्ञानिक अपनी इस खोज में भी सफल होंगे ही और किसी न किसी दिन वे आंतरजगत् के रहस्य को भी सुलझा देंगे, ऐसा हमें विश्वास करना चाहिए। जब तक वे उसमें सफल नहीं होते तब तक हमें राह देखकर बैठे नहीं रहना है - मानव समाज की जो समस्याएं हैं उन्हें धर्म किस प्रकार सुलझा सकता है, इस पर विचार करना ही चाहिए। यहां तो आधुनिक युग की समस्या के हल के लिए भगवान् महावीर का क्या सन्देश है यह देखना है । महावीर की देन : श्रात्मनिर्भरता की साधना : धार्मिक जगत् को सबसे बड़ी कोई देन भगवान् महावीर ने दी है तो वह है आत्मनिर्भरता । ग्राज का वैज्ञानिक ईश्वर से छुट्टी ले रहा है । "God is dead" का नारा बुलन्द हो रहा है किन्तु ग्राज से ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् महावीर का उपदेश ही नहीं किन्तु ग्राचरण भी इसी नारे के ग्राधार पर था । उन्होंने जब साधना शुरू की तव ही अपनी साधना के लिए अकेले निःसहाय होकर साधना करने की प्रतिज्ञा की । इन्द्र ने उनकी साधनाकाल में मदद करना चाहा किन्तु उन्होंने इन्कार कर दिया और कहा कि अपनी शक्ति पर अटल विश्वास के वल पर ही साधना की जा सकती है । साधना भी क्या थी ? कोई ईश्वर या वैसी बौद्ध शक्ति की भक्ति और प्रार्थना नहीं किन्तु अपनी आत्मा का निरीक्षण ही था । अपनी आत्मा में रहे हुए राग और द्वेष को दूर कर ग्रात्मा को विशुद्ध करने की तमन्ना थी । इसी तमन्ना के कारण ये नाना प्रदेशों में अपने साधनाकाल में घूमते रहे, जिससे यह कोई शायद ही जान सके कि वह तो वैशाली का राजकुमार है - इसे सुख-सुविधा दी जानी चाहिए । दूर- सुदूर अनार्य देश में भी घूमे जहां उन्हें नाना प्रकार के कष्ट दिए गए। अपनी आत्मा में साम्यभाव कितना है इसके परीक्षण के लिए वे जानबूझकर ग्रनार्य देश में गये थे और विशुद्ध सुवर्ण की तरह ग्रग्नि से तप कर वे ग्रात्मा को विशुद्ध कर पुनः अपने देश में लौटे। यही उनकी आत्मनिर्भरता की साधना थी । जो उनके उपदेशों में भी है । उनका उपदेश जो 'आचारांग' में संगृहीत है, उसका प्रथम वाक्य है जीव यह नहीं जानता कि वह कहां से गाया है और कहां जाने वाला है ? जो यह जान लेता है कि यह जीव नाना योनियों में भटक रहा है वही ग्रात्मवादी - हो सकता है, कर्मवादी हो सकता है, क्रियावादी हो सकता है, लोकवादी हो सकता है । पुनर्जन्म की निष्ठा कहो या श्रात्मा की शाश्वत स्थिति की निष्ठा, इस वाक्य में स्पष्ट होती ही है । साथ ही कर्म और लोक के विषय में उनकी निष्ठा भी स्पष्ट होती है । सारे संसार में जो कुछ हो रहा वह जीव के कर्म और क्रिया के कारण ही हो रहा है । कोई ईश्वर संसार का निर्माण नहीं करता । जीव अपने कर्म से ही अपने संसार का निर्माण करता है - यह तथ्य जीव को ग्रात्मनिभर बनाता है । कर्म करना जैसे जीव के अधीन है वैसे कर्म से मुक्त होना भी जीव के अधीन है किसी की कृपा के अधीन जीव की मुक्ति नहीं ।

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