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श्राधुनिक विज्ञान और द्रव्य विपयन जैन धारणा
पुद्गलः” । हाइड्रोजन बम पूरण या संयोग धर्म का उदाहरण है ( फ्यूजन) और एटम बम वियोग या गलन का उदाहरण है । यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो पुद्गल की संरचना में परमाणुओं का यह गलन और पूरण रूप एक ऐसा तथ्य है जिस पर ग्राधुनिक विज्ञान (विशेषकर भौतिकी) की समस्त परमाणविक ऊर्जा का प्रासाद निर्मित हुआ है । जैन शब्दावली में एक अन्य शब्द प्रयुक्त होता है - 'तेजोलेश्या' जो पुद्गल की कोई रासायनिक प्रक्रिया है जो सोलह देशों को एक साथ भस्म कर देती है । " यह संहारक प्रवृत्ति आधुनिक वमों की ओर भी संकेत करती है । श्राधुनिक र शक्ति केवल ऊष्मा के रूप में ही प्रकट होती है, पर तेजोलेश्या में उष्णता और शीतलता दोनों गुण विद्यमान हैं श्रौर शीतल तेजोलेश्या, उष्ण तेजोलेश्या के प्रभाव को शीघ्र नष्ट कर देता है । आधुनिक विज्ञान उष्ण तेजोलेश्या को एटम तथा हाइड्रोजन बमों के रूप में प्राप्त कर चुका है, पर इनके प्रतिभारक रूपों के प्रति ग्रव भी पहुँच नहीं सका है जो अभी भविष्य के गर्त में ही विद्यमान हैं । यही कारण है कि अन्तर्राष्ट्रीय धरातल पर इन वमों के प्रयोग के प्रति सभी शक्तिशाली देश सशंकित हैं ।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि जैन दार्शनिकों ने केवल आध्यात्म के क्षेत्र में ही नहीं पर पदार्थ विज्ञान के क्षेत्र में भी ऐसे सत्यों का साक्षात्कार किया जो प्राधुनिक विज्ञान के द्वारा न्यूनाधिक रूप में मान्य हैं । मैं व्यक्तिगत रूप से यह महसूस करता हूँ कि जैन विचारधारा ने सही रूप में, दर्शन और विज्ञान के सापेक्ष महत्त्व को उद्घाटित किया और विश्व तथा प्रकृति के सूक्ष्मतम अंश परमाणु के रहस्य को प्रकट किया है । द्रव्य की यह लीला अनंत है और व्यक्ति यही चाहता है कि वह द्रव्य के 'अनन्वेषित प्रदेशों' तक पहुँच सके - यह जानने और पहुँचने की आकांक्षा ही ज्ञान का गत्यात्मक रूप है । वीरेन्द्र कुमार जैन को निम्न काव्य पंक्तियां इस पूरी स्थिति को सर्जन के धरातल पर व्यक्त करती हैं :
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देश-दिशा काल के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंशों में
अनंत और शेष कमरे खुलते चले गए :
कमरे के भीतर कमरा
श्रीर हर कमरे के लघुतम 'तरिक्ष में
असंख्यात कोटि कमरे ।
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स्कंध, पु, परमाणु से भरे
द्रव्य की उस नग्न परिणमन लीला का अन्त नहीं था ।
१. भगवती शतक १५ में ये सोलह देश इस प्रकार है- श्रंग, वंग, मगध, मलय, मालव, अच्छ, वच्छ, कोच्छ श्रादि ।