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महावीर : बापू के मूल प्रेरणा-स्रोत
पुस्तकों द्वारा और उनके साथ हुए थोड़े पत्र-व्यवहार से, रस्किन ने अपनी एक ही पुस्तक 'अन्टु दि लास्ट' से जिसके गुजराती अनुवाद का नाम मैंने 'सर्वोदय' रखा, और रायचन्द भाई ने अपने गाढ़ परिचय से । इनमें रायचन्द भाई को मैं प्रथम स्थान देता हूं।"
. यह बात किसी से छिपी नहीं कि शतावधानी कवि रायचन्द स्वयं जैन थे और जैन धर्म के एक प्रवुद्ध विचारक भी थे । 'यात्म कथा' में बापू ने उनके विपय में लिखा है"उनका (रायचन्द का) गम्भीर शास्त्रज्ञान, शुद्ध चारित्र्य, और प्रात्मदर्शन की उत्कट लगन का प्रभाव मुझ पर पड़ा । उस समय यद्यपि मुझे धर्मचर्चा में अधिक रस नहीं मिलता था पर रायचन्द भाई की धर्मचर्चा को मनोयोग से सुनता था, समझता था और उसमें रुचिपूर्वक भाग लेता था। उसके बाद अनेक धर्माचार्यों के सम्पर्क में आने का सौभाग्य मुझे मिला पर जो छाप मुझ पर रायचन्द भाई ने डाली वह दूसरा कोई नहीं डाल सका । उनके बहुतेरे वचन सोचे अन्तर में उतर जाते । उनकी बुद्धि और सच्चायो के लिए मेरे मन में आदर था।"
- रायचन्द भाई बापू के समवयस्क थे। वे वापू से लगभग दो वर्ष बड़े थे। प्रारम्भ में उन्हें वैष्णवी वातावरण मिला परन्तु शीघ्र ही वे जैन धर्म की ओर झुक गये और बाल्यावस्था में ही पूर्ण जैन हो गये । बापू से जैन हो जाने के बाद ही उनका सम्पर्क हुना होगा। दोनों का यह सम्पर्क सन् १८६१ में हुग्रा ।
रायचन्द भाई पर गांधी जी को बहुत विश्वास था। उन्होंने अपनी 'आत्मकथा' में लिखा है-"मैं जानता था कि वे (रायचन्द भाई) “मुझे जान-बूझकर उल्टे रास्ते नहीं ले जावेंगे एवं मुझे वही बात कहेंगे जिसे वे अपने जी में ठीक समझते होंगे । इस कारण मैं अपनी आध्यात्मिक कठिनाइयों में उनका प्राश्रय लेता।"
अफ्रीका में ईसाई सज्जनों ने गांधी जी को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने का यथाशक्य प्रयत्ल किया । उसका फल यह हुआ कि उनको वैदिक धर्म में विचिकित्सा पैदा हो गई। उसे दूर करने के लिए उन्होंने यहां रायचन्द भाई से पत्र-व्यवहार किया। उनके उत्तर से वापू को सन्तोप हुआ और यह विश्वास पा गया कि वैदिक धर्म में उन्हें जो भी चाहिए, मिल सकता है । इससे पता चलता है कि बापू के मन में रायचन्द भाई के प्रति कितना सम्मान रहा होगा।
कवि रायचन्दजी के सम्पर्क से वापू को जैन सिद्धान्तों के विषय में भी पर्याप्त जानकारी हो गई थी । फलतः उनका आध्यात्मिक मानस जैन सिद्धान्तों से प्रभावित हुए विना नहीं रहा । महावीर द्वारा प्रतिपादित सार्वभौमिक अहिंसा की पृष्ठभूमि में उनके प्रायः सभी प्राचार-विचार जागरित हुए । रायचन्द भाई के उद्बोधन के कारण बापूजी दक्षिण अफ्रीका में अनेक अवसर आने पर भी धर्म से विचलित नहीं हो पाये। दोनों महापुरुपों के बीच पत्र-व्यवहार अन्त तक चलता रहा। रायचन्द भाई ने बापू को पुस्तकें भी भेजी जिनका
१-वही, पृ० १६६।