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अपेडिविया, जे यावण्णे तहप्पगारा सावज्जजोगोपहिया कम्मता परपाण परियावणकरा कजंति तओ वि एंगबाज पंडिविरया जावजीवाए, एगचाओ अपडिविरया ॥ सू० ६२ ॥
रूप-गन्ध--मान्याऽ-लाराय्प्रतिविरता यावत्रोपम्, 'एगचाओ अपडिबिरया ' एक इमादप्रतिविरता –तत्र वर्णक =अङ्गराग, अन्यत् स्पष्टम् । तथा-'जे यात्रणे सहवणारा ' ग्रे यावन्तस्तथाप्रकारा 'सावज्जजोगोर दिया' सावद्ययोगोपधिका साधनयोगा सावधनो गयुक्ताश्च ते औषधिका मायाप्रयोजनार्थेति तथा, 'पर- पाण-परियात्रणकरा' परप्राणपरिंतापनकरा 'कम्मंता' कर्मान्ता = कृप्यादिव्यापाराशा 'कजंति' क्रियन्ते, 'जो दि एगचाओ पडिविरया' ततोऽपि एकस्मात् प्रतिनिरता प्रतिनिवृत्ता, 'एगचाओ अपठि विरया' एकस्मात् अप्रतिविरता = अनिवृत्ता' सन्ति ॥ सू० ६२ ॥
कोई २ ऐसे हैं जो जीवनपर्यन्त स्नान से, मर्दन से, विलेपन से, शब्द, रूप, मंघ, रस, स्पर्श इन इन्द्रियों के भोगों से, माला एवं अलकार आदि से निवृत्त हैं । ( एगबाओ अपडिविरया) कोई २ ऐसे भी हैं जो इनसे बिलकुल ही प्रतिविरत नहीं हैं। (जे यात्रणे तहप्पगारा सावज्जजोगोवहिया कम्मता परपाणपरियावणकरा कज्जति ) इसी प्रकार के और भी जितने सावद्ययोगोपधिक अर्थात् - सावधयोगयुक्त और मायाकषायजन्य तथा—दूसरों के प्राणों को परिताप पहुँचाने वाले जो कृष्यादि व्यापार हैं, (तओ त्रि) उनसे भी कितनेक ऐसे मनुष्य हैं जो ( एगञ्चाओ पडिविरया जावज्जीवए) एकान्त
पडिविरया जावज्जीवाओ ) अ अ सेवा होय हे ट्ठे मे भवनपर्यंत स्नानथी, भई नथी,' म गरागर्थी, विज्ञेयनथी, शह-स्पर्श-३५ - अध-रस मे द्वियोना लोगोथी भने भाजा तेभन असार महिथी निवृत्त है ( एगच्चाओ अपडिविरया ) अर्ध अर्ध सेवा छे हैं ने तेनाथी जिसस ४ अतिविरत होता नथी (जे यावण्णे तहप्पगारा सावज्जजोगोवहिया कम्मता परपाणपरियावणकरा कज्जति ) भेन अारे मील पशु नेटसा सावद्ययोगीषधि એટલે સાવધયેાગયુક્ત અને માયાકષાયજનિત તથા ખીજા જીવાના પ્રાણને परिताप पहायाउनार ने हृषि न्याहि व्यापार छे, ( तओषि ) तेनाथी पष्ठ मील हैटसा मेवा भनुष्य छे े ? ( एगन्चाओ पडिविरया जावज्जीवाए ) वनपर्यन्त