Book Title: Auppatiksutram
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 837
________________ કરછ औपातिकयो ___ अण्णोण्णसमोगाढा, घुट्टा सव्वे य लोगंते ॥ सू० १५१ ॥ मूलम्-फुसइ अणते सिद्धे, सव्वपएसेहि णियमसा सिद्धो। 'तत्य' तन देशे 'अणता' अन ता-अप्रियमानोऽन्तो येपा तेऽनन्ता , 'भवक्खयविमुक्का' भक्षयविमुक्ता -भगक्षये सनि प्रिमुक्ता , अनेन स्वेच्छयाऽरतरणशक्तिमसिद्धव्यवच्छेदमाह। 'अण्णोण्णसमोगाढा' अन्योऽन्यसमवगाढा' परपरस्पर सम्यक् अवगाढा -धर्मास्तिकायादिवत् ममिलिता , 'सव्ये य' सर्व च लोगते' लोकाते =लोकाप्रभागे अलोकेन 'पुट्ठा' स्पृष्पा लग्ना , प्रतिरुद्धत्वात् , तर धर्मास्तिकायाभागदिति । अत एव-'लोकाग्रे च प्रतिष्ठिता' इत्युक्तम् ।। सू० ११५ ।। टीका-'सह' इत्यादि । 'सिद्धे' सिद्ध -एक सिद्ध 'णियमसा' नियमन 'जत्य य एगो सिद्धो' इत्यादि । (जत्य य एगो सिद्धो) जिस सिद्धक्षेत्र में एक सिद्ध भगवान विराजते है, (तत्थ अणता) उसी सिद्धक्षेत्र में अनत सिद्ध विराजमान रहते है। (भवक्खयविमुक्का) उनके भाका क्षय सर्वथा हो चुका है। (अण्णोण्णसमोगाढा पुद्रा) जिस प्रकार एक ही स्थान पर धर्मादिक द्रव्य परम्पर अपगाढरूप में स्थित होकर रहते है उसी प्रकार ये सिद्ध आत्मा भी एक ही स्थान पर परस्पर मे अवगाढरूप से रहते है। फिर भी अपने २ चैतन्यस्वरूप का परित्याग नहीं करते है। (सव्वे य लोगते) धमास्तिकायका अभाव होने से ये लोक के अग्रभाग मे स्पृष्ट रहते है । स ११५॥ 'फुसइ अणते सिद्धे' इत्यादि । (फुसइ अणते सिद्ध सन्चपएसेहि णियमसा सिद्धो) एक मिद्ध 'जत्थ य एगो सिद्धो' त्यादि (जस्थ य एगो सिद्धो) २ सित्रमा ४ सिद्ध लगवान मिरे छ, (तत्य अणता) ४ सिद्धक्षेत्रमा सनत सिद्ध विमान हाय छ (भरक्सयविमुक्का) तमना सपना सय सवा ४ यूडया छ ( अण्णोण्ण समोगाढा पुट्ठा) डा. मे २थान पर धादि द्रव्य ५२२५२ ગાઢરૂપમાં સ્થિત થઈ રહે છે તેજ પ્રકારે તે સિદ્ધ આત્મા પણ એક જ સ્થાન પર પરસ્પરમાં અવગાહરૂપથી રહે છે છતા પણ પોતપોતાના ચિતન્યસ્વરૂપને પરિત્યાગ કરતા નથી ધર્માસ્તિકાયને અભાવ હોવાથી તેઓ લેકના અગ્ર सासमा पृर (all) २६ छ (सू ११५) 'पुसइ अणते सिद्धे' त्याहि (सइ अणते सिद्ध सव्वपएसेहि णियमसा सिद्धो) मे सि लगवान

Loading...

Page Navigation
1 ... 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868