Book Title: Auppatiksutram
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 843
________________ ७३० সাঘসিদ্ধ मूलम्---जह णाम कोइ मिच्छो,नगरगुणे बहुविहे वियाणते। नचएइ परिकहेउं, उवमाए तर्हि असंतीए॥सू०१२२॥ विगि यत्त यापदनन्तगुणवृद्धचा चरमावधि प्राप्त भवति । ततश्च तदत्यन्तनिरुपममौ मुक्यवृत्तिविरहित प्रशान्तमहोदधितुन्य चरमाहादस्वरूपम् । तस्माचरमाहादात् पूर्व प्रथमाचानन्तरमपा तरालयत्तिनो ये तातरम्येनाहादविगेपास्ते साकायप्रदेशराशेप भूयासो भान्ती यत किलोक्तम्-'सबागासे ण माएजा' इति, अन्यथा प्रतिनियतदेगावस्थिति कथ तेषामिति मूयोऽभिदधतीति ॥ सू १२१ ॥ टीका-'जह णाम' इत्यादि । 'जाणाम' ययानाम=यथादृष्टान्तम्-टातमनुसृय कथयामी यर्थ , 'कोड मिन्छो' कश्चिन्म्लेच्छो 'गहुविहे' बहुविधान 'नगरगुणे नगरगुगान् 'बियाणते' विजानपि 'परिकहेउ' परिकथयितु-वर्णयितु 'न चएई' नामोते, कथ न गानोति र इ याह -'उमाए' इत्यादि । ' उवमाए तर्हि को प्राप्त होता है, तब वह अयन्त अनुपम, उकण्ठा की वृत्ति से रहित, और प्रशान्त समुद्र के समान गम्भीर चरमसुसम्रूप हो जाता है । उस चरम मुख से पहले और प्रथम सुग्व के बाद के जो मध्यवर्ती तरतमता से युक्त सुसविशेष है, वे सभी सर्वाकायप्रदेशों से भी अधिक है। इसीलिये कहा गया है- 'सव्यागासे ण माएज्जा' अर्थात् सिद्धों का अनन्तवर्ग--विभक्त भा सुग्व, समस्त आकाश मे नहा समा पाता है ॥ म् १२१ ॥ 'जह णाम कोइ मिच्छो' इत्यादि । दृष्टान्त देकर इसी विषय को स्पष्ट करते हे-(जह णाम कोइ मिन्छो नगरगुणे बहुविहे विषाणते) जैसे कोई म्लेच्छ बहुत प्रकार के नगरगुणों को जानता हुआ भी (न પામીને પિતાની અતિમ અવધિને પ્રાપ્ત થાય છે, ત્યારે તે અત્યન્ત અનુપમ, ઉત્કંઠાની વૃત્તિથી રહિત અને પ્રશાન્ત સમુદ્ર સમાન ગ ભીર ચરમસુખરૂપ થાય છે તે ચરમ સુખથી પૂર્વ અને પ્રથમ સુખની પછી મધ્યવતી, તારતમ્યથી યુકત જે સુખવિશેષ છે, તે સુખ સઘળા આકાશ પ્રદેશની અપેક્ષાએ પણ અધિક छे से माटे पामा साथ्यु छ , 'सव्वागासे ण माण्ज्जा' सेट સિદ્ધોના અનતવર્ગવિભક્ત સુખ પણ સઘળા આકાશ પ્રદેશમાં સમાઈ શકતુ નહિ (સૂ ૧૨૧) 'जह णाम कोइ मिच्छो' त्या ead धने से वि५५ २५०४ ४३ छ (जह णाम कोइ मिच्छो नगरगुणे बहुविहे वियाणते ) रेभ २७ मारना नामुलाने

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