Book Title: Auppatiksutram
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 809
________________ औपपातिक मूलम् - ते णं तत्थ सिद्धा हवंति, साइया अपज्जवसिया > " ! टीका भनोत्तराने एकोनसप्ततितमे सूने यद्रवोचत् 'से जे उमे गामागरजाव सचिवेसे मया हवति सन्नकामनिया' इत्यारभ्य 'अनुकम्पयडीओ खबइत्ता उप्पि लोयग्गभावार्थ, इस उपाय से योगों का निरोध करते समय प्रथम मनोयोगका निरोज करते है, फिर बचनयोगका और फिर बाद में काययोगका । योग के निरोध हो जाने से वे अयोगी - अवस्थाको प्राप्त कर हूस्व अकारादि के, अर्थात् अ, इ, उ, ऋ, लृ इन पाच अक्षरों के उच्चारण करने में जितना काल लगता है उतने काल तक उस अयोगी अवस्था में रहते हुए शैलेगी- अवस्थाको प्राप्त करने के पश्चात् असख्यातगुणश्रेणी से अनत कर्मागोका क्षय कर देते हैं । फिर वेदनाय, आयु, नाम एव गोत्र इन चार अघातिया कर्मोंको युगपत् विनष्ट कर वे भगवान्, औदारिक, तैजस एव कार्मण शरीरको क्षपित करते है । इस प्रकार कर्मों और शरीरों से सर्वथा रहित बने हुए वे प्रभु आकाशकी प्रदेशपक्ति के अनुसार १ समय प्रमाणवाली अविग्रहगति से गमन कर सिद्धिगति में जाकर विराजमान हो जाते हैं । यहा वे साकार - उपयोगविशिष्ट रहा करते है || सू ९२ ॥ ६९८ 'तेण तत्थ' इत्यादि । इसी आगम के उत्तरार्धका ६९ वाँ सून जो (से जे इमे गामागर जाव सन्निवेજ્ઞાનાપયાગથી તેઓ વિશિષ્ટ રહે છે I ભાવા—આ ઉપાયથી ચોગાના નિરાય કરતી વખતે પ્રથમ મનાયાગને તે કેવલી નિરોધ કરે છે. પછી, વચનયાગના અને ત્યાર પછી કાયચેાગના નિરોધ થઈ ગયા પછી તે યાગી—અવસ્થા પ્રાપ્ત કરીને स्वसार माहिनु, अर्थात्-अ, इ, उ, ऋ, ऌ आ पाये अक्षरानु उभ्यारण કરવામા જેટલા ડાળ લાગે એટલા કાલ સુધી તેઓ તે અયાગી-અવસ્થામા રહેતા શૈલેશી-અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરીને પછી અસખ્યાત ગુણુશ્રેણીથી અનત कर्मा शोनों क्षय दूरी हे हो पछी बेहनीय, आयु, नाम भन्न गोत्र-यो- यार--- અઘાતિયા કર્મોને યુગપત્ નાશ કરીને તે ભગવાન્ ઔદારિક, તેજસ તેમજ કામણુ શરીરને ક્ષપિત કરે છે. આ પ્રકારે કાં અને શરીરાથી સવ થા રહિત અનેલા તે પ્રભુ આકાશની પ્રદેશપકિત અનુસાર ૧ સમયપ્રમાણવાળી અવિગ્રહગતિથી ગમન કરીને સિદ્ધિગતિમા જઇ વિરાજમાન થઈજાય છે અહીં તેએ साभार-उपयोग-विशिष्टा रह्या ४रे छे, ( सू ८) -- f ' ते ण तत्थ' इत्यादि " > , मे ४ भागभना उत्तरार्धनु योगसित्तेरभु सूत्र ने (से जे इमे गामागर जाब י

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