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कल पछताओगे, साथ-संग छूटेगा। सिर्फ निराधार नहीं पछताता । है ही नहीं, जिससे साथ छूट जाये, संग छूट जाये । कोई हाथ में ही हाथ नहीं ।
परमात्मा तक का आधार मत लेना; ऐसी अष्टावक्र की देशना है। क्योंकि परमात्मा के आधार भी तुम्हारी कल्पना के ही खेल हैं। कैसा परमात्मा ? किसने देखा ? कब जाना? तुम्हीं फैला लोगे। पहले संसार का जाल बुनते रहे, निष्णात हो बड़ी कल्पना में; फिर तुम परमात्मा की प्रतिमा खड़ी कर लेते हो। पहले संसार में खोजते रहे, संसार से चूक गये, नहीं मिला। नहीं मिला क्योंकि वह भी कल्पना का जाल था, मिलता कैसे ? अब परमात्मा का कल्पना जाल फैलाते हो । अब तुम कृष्ण को सजाकर खड़े हो । अब उनके मुंह पर बांसुरी रख दी है। गीत तुम्हारा है। ये कृष्ण भी तुम्हारे हैं, यह बांसुरी भी तुम्हारी, यह गुनगुनाहट भी तुम्हारी । ये मूर्ति तुम्हारी है और फिर इसी के सामने घुटने टेक कर झुके हो। ये शास्त्र तुमने रच लिये हैं और फिर इन शास्त्रों को छाती से लगाये बैठे हो। ये स्वर्ग और नर्क, और यह मोक्ष और ये इतने दूर-दूर के जो तुमने बड़े वितान ताने हैं, ये तुम्हारी ही आकांक्षाओं के खेल हैं।
संसार से थक गये लेकिन वस्तुतः वासना से नहीं थके हो। यहां से तंबू उखाड़ दिया तो मोक्ष में लगा दिया है। स्त्री के सौंदर्य से ऊब गये, पुरुष के सौंदर्य से ऊब गये तो अप्सराओं के सौंदर्य को देख रहे हो। या राम की, कृष्ण की मूर्ति को सजाकर शृंगार कर रहे हो । मगर खेल जारी है। खिलौने बदल गये, खेल जारी है। खिलौने बदलने से कुछ भी नहीं होता। खेल बंद होना चाहिए।
अष्टावक्र कहते हैं, 'निर्वासनो, निरालंबः ।'
जिसकी वासना गिर गई उसका आश्रय भी गिर गया। अब आश्रय कहां खोजना है ? वह खड़े होने को जगह भी नहीं मांगता। वह इस अतल अस्तित्व में शून्यवत हो जाता है। वह कहता है मुझे कोई आधार नहीं चाहिए ।
आधार का अर्थ ही है कि मैं बचना चाहता हूं, मुझे सहारा चाहिए। ज्ञानी ने जान लिया कि मैं हूं कहां ? जो है, है ही । उसके लिए कोई सहारे की जरूरत नहीं है। यह जो मेरा मैं है इसको सहारे की जरूरत है क्योंकि यह है नहीं। बिना सहारे के न टिकेगा। यह लंगड़ा - लूला है; इसे बैसाखी चाहिए।
निरालंब का अर्थ होता है : अब मुझे कोई बैसाखी नहीं चाहिए। अब कहीं जाना ही नहीं है, कोई मंजिल न रही तो बैसाखी की जरूरत क्या ? पैर भी नहीं चाहिए। अब कोई यान नहीं चाहिए। अब तो डूबने की भी मेरी तैयारी है उतनी ही, जितनी उबरने की। अब तो जो करवा दे अस्तित्व, वही करने को तैयार हूं। तो अब नाव भी नहीं चाहिए । अब डूबते वक्त ऐसा थोड़े ही, कि मैं चिल्लाऊंगा कि बचाओ ।
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ज्ञानी तो डूबेगा तो समग्रमना डूब जायेगा । डूबते क्षण में एक क्षण को भी ऐसा भाव न उठेगा कि यह क्या हो रहा है? ऐसा नहीं होना चाहिए। जो हो रहा है, वही हो रहा है। उससे अन्यथा न हो सकता है, न होने की कोई आकांक्षा है। फिर आश्रय कैसा ?
तुम परमात्मा का आश्रय किसलिए खोजते हो, कभी तुमने खयाल किया ? कभी विश्लेषण किया? परमात्मा का भी आसरा तुम किन्हीं वासनाओं के लिए खोजते हो। कुछ अधूरे रह गये हैं स्वप्न; तुमसे तो किये पूरे नहीं होते, शायद परमात्मा के सहारे पूरे हो जायें। तुम तो हार गये; तो अब
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5