Book Title: Ashtapahuda
Author(s): Kundkundacharya, Mahendramuni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 29
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates दर्शनपाहुड] व्यवहारनय पर्यायाश्रित है इसलिये भेदरूप है, व्यवहारनयसे विचार करें तो जीवके पर्यायरूप परिणाम अनेक प्रकार हैं, इसलिये धर्मका भी अनेक प्रकार से वर्णन किया है। वहाँ (१)-प्रयोजनवश एकदेश का सर्वदेशसे कथन किया जाये सो व्यवहार है, (२)-अन्य वस्तुमें अन्यका आरोपण अन्यके निमित्त से और प्रयोजनवश किया जाये वह भी व्यवहार है, वहाँ वस्तुस्वाभाव कहने पर तात्पर्य तो निर्विकार चेतनाके शुद्धपरिणामके साधक रूप (३)-मंद कषायरूप शुभ परिणाम हैं तथा जो बाह्यक्रियाएँ हैं उन सभी को व्यवहार धर्म कहा जाता है। उसीप्रकार रत्नत्रयका तात्पर्य स्वरूपके भेद दर्शन-ज्ञान-चारित्र तथा –सके कारण बाह्य क्रियादिक हैं, उन सभी को व्यवहार धर्म कहा जाता है। उसीप्रकार -(४) जीवोंकी दया कहनेका तात्पर्य यह है कि क्रोधादि मंदकषाय होनेसे अपने या पर के मरण, दुःख, क्लेश आदि का न करना; 'उसके साधक समस्त बाह्यक्रियादि को धर्म कहा जाता है। इस प्रकार जिनमत में निश्चय-व्यवहारनयसे साधा हुआ धर्म कहा है। वहाँ एक स्वरूप अनेक स्वरूप कहने में स्याद्वाद से विरोध नहीं आता, कथन्चित् विवक्षा से सर्व प्रमाण सिद्ध है। ऐसे धर्म का मूल दर्शन कहा है, इसलिये ऐसे धर्मकी श्रद्धा, प्रतीति, रुचि सहित आचरण करना ही दर्शन है, यह धर्म की मूर्ति है, इसी को मत (दर्शन) कहते हैं और यही धर्म का मूल है। तथा ऐसे धर्म की प्रथम श्रद्धा, प्रतीति, रुचि न हो तो धर्म का आचरण भी नहीं होता,--जैसे वृक्ष के मूल बिना स्कंधादिक नहीं होते। इसप्रकार दर्शनको धर्म का मूल कहना युक्त है। ऐसे दर्शनका सिद्धान्तोंमें जैसा वर्णन है तदनुसार कुछ लिखते हैं। वहाँ अंतरंग सम्यग्दर्शन तो जीवका भाव है वह निश्चय द्वारा उपाधि रहित शुद्ध जीव का साक्षात् अनुभव होना ऐसा एक प्रकार है। वह ऐसा अनुभव अनादिकाल से मिथ्यादर्शन नामक कर्मके उदय से अन्यथा हो रहा है। सादि मिथ्यादृष्टिके उस मिथ्यात्व की तीन प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं-- मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति। तथा उनकी सहकारिणी अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से चार कषाय नामक प्रकृतियाँ हैं। इस प्रकार यह सात प्रकृतियाँ ही सम्यग्दर्शन का घात करने वाली हैं; इसलिये इन सातोंका उपशम होने से पहले तो इस जीवके उपशमसम्यक्त्व होता है। इन प्रकृतियों का उपशम होने का बाह्य कारण सामान्यतः द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव हैं। उनमें, द्रव्यमें तो साक्षात् तीर्थंकर के देखनादि प्रधान हैं, क्षेत्रमें समवसरणादिक प्रधान हैं, कालमें अर्धपुद्गलपरावर्तन संसार भ्रमण शेष रहे वह, तथा भावमें अधःप्रवृत्तकरण आदिक हैं। १. साथकरूप-- सहचर हेतुरूप निमित्तमात्र; अंतरंग कार्य हो तो बाह्य में इस प्रकार को निमित्तकारण कहा जाता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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