Book Title: Arhat Vachan 2012 01
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 7
________________ है। उस अतीत को न जाननेवाला अपनी प्राचीन निधि के परिज्ञान बिना निराधार सदृश है। स्वजाति समुत्पन्न पूर्वज ही वह रत्नकोष हैं, जिन्हें उत्तराधिकार में प्राप्त कर मनुष्य वास्तविक संस्कृति सम्पन्नता का अधिकारी होता है। गृहस्थों के लिए जिनपूजा प्रधान धर्म है की प्रतिमाओं का ही आश्रय लिया जाता है, को असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है समय जो आनंद आता है वह धर्म है। कहा भी है'पुष्पादिः रतवनादिर्वा नैव धर्मस्य साधनम् । - भावों ही धर्महेतुः स्यात्तदत्र प्रयतो भवेत् ॥ 12 अर्थ- केवल जल, गंध, अक्षत, पुष्प, चरु, दीप, धूप और फल तथा जप, स्तवन, भजन, शब्दात्मक गुणकीर्तन आदि आलंबन है, स्वयं धर्म नहीं। वस्तुतः शुद्ध भाव ही धर्म का हेतु है। इसलिए शुद्ध भाव के विषय में ही प्रयत्नवान् होना चाहिये। 'पुष्पादिरशनादिर्वा न स्वयं धर्म एव हि। क्षित्यादिरिव धान्यस्य किन्तु भावस्य कारणम् ॥ अर्थ - केवल पुष्पादि अष्टद्रव्य चढ़ाना वगैरह क्रियाकाण्ड और आहारादि दान स्वयं धर्म नहीं है किन्तु जैसे खेती (बीज, पानी, खाद व हल) वगैरह धान्य की उत्पत्ति में निमित्त साधन हैं वैसे ही पुष्पादि चढ़ाना ये चीजें शुभोपयोग के प्रबल साधन है । , प्रस्तुत लेख का सारांश यह है कि प्राकृत, अपभ्रंश भाषा के तत्सम तद्भव, देशी आदि शब्दों का गूढ़ अध्ययन अत्यंत आवश्यक है। शब्द सम्पत्ति के बिना लेखक / लेखिका बनना असम्भव है। यदि किसी शास्त्र को पढ़कर के उसमें अपना अभिप्राय लिखें तो वह आगम के अनुसार होना चाहिए, उसे ही शास्त्रों में भाष्य कहा है। यथा - - 'सूत्रार्थी वर्ण्यते यत्र पदैः सूत्रानुसारिभिः । स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाष्यं भाष्यं भाष्यविदो विदुः ॥' अर्थ सूत्र (आगम-परमागम) को अनुसरण करने वाले पदों के द्वारा सूत्र का अर्थ बताया जाए तथा अपने पदों का भी व्याख्यान किया जाए, उसे भाष्यवेत्ताओं ने 'भाष्य' रूप से जाना है । संदर्भ - 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. यद्यपि इसमें जल, गंध, पुष्पादि के माध्यम से पंचपरमेष्ठी पर वहां भी भाव ही प्रधान होते है, जिनके कारण पूजक वास्तव में जल, गंधादि चढ़ाना धर्म नहीं है वरन् चढ़ाते सर्वज्ञ प्रणीत जैन भूगोल, डॉ. श्रीमती उज्जवलता दिनेशचंद्र शहा, पृष्ठ 99 जयधवला, भाग 1, 1/82, पृष्ठ 100 छक्खंडागम, बंध., 3/42 पृष्ठ 92 'बलिर्मस्तकस्योपरितनभागेनावतरणं क्रियेऽहमिति तस्य योगिनः' परमात्मप्रकाश, ब्रह्मदेव टीका, 2/160 अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग 5, पृष्ठ 1073 वही भाग 3, पृष्ठ 797, 799 · ज्ञानपीठ पूजांजलि भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली महार्षिवासुपूज्यकृत, दानशासनम्, 3/84, पृष्ठ 45 9. पं. टोडरमल, मोक्षमार्ग प्रकाशक, 2/42 10. आचार्य मानतुंग, भक्तामर स्तोत्र, 33 11. पं. मदन शर्मा 'सुधाकर', कविरत्नम् 12. प्रबोधसार 3, पृष्ठ 185 13. सोमदेवसूरि, उपासकाध्ययन, 42 / 792 प्राप्त: 30 अक्टूबर 2011 अर्हत् वचन, 24 (1), 2012 7

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