Book Title: Arhat Vachan 2012 01 Author(s): Anupam Jain Publisher: Kundkund Gyanpith Indore View full book textPage 6
________________ समान है, पुण्यरूपी अंकुर को उत्पन्न करानेवाला है, नागेन्द्र, देवेन्द्र और चक्रवर्ती के राज्य के अभिषेक के जल के समान है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी लता की वृद्धि का सम्पादक है तथा कीर्ति, लक्ष्मी और जय का साधक है। उपर्युक्त श्लोक को पढ़कर गन्धोदक ग्रहण करना चाहिए। गन्धोदक लगाने का स्थान 'गंधांभः सुमनार्ह दंघ्रियुगसं स्पर्शात्पवित्रीकृतम्। देवेंद्रादि शिरो-ललाट-नयन न्यासोचितं मंगलम्।। तेषां स्पर्शनतस्त एवं सकलाः पूता अभोगोचितम्। भाले नेत्रयुगे च मूर्धनि तथा सर्वेर्जनैर्धार्यताम्।।'' अर्थ- भगवान् के चरण में चढ़ाये हुए सुगन्धित जल अरिहंत भगवान के पवित्र चरण के स्पर्श होने से पवित्र हो जाते हैं। अतएव देवेन्द्रादि के भी ललाट, मस्तक, नेत्र में धारण करने योग्य है। उनके स्पर्श करने मात्र से ही पूर्व में अनेक जन पवित्र हो चुके हैं। इसलिए उन गंधोदक आदि को भव्य जीव सदा ललाट, नयनद्वय व मस्तक में सदाकाल भक्ति से धारण करे । जिनेन्द्र भक्ति एवं गंधोदक का महत्व'यदीय पादाम्बुजभक्तिशीकरः सुरासुरधीश पदाय जायते।' अर्थ- जिनेन्द्र भगवान् के चरणों का एक बूंद गंधोदक जो भक्ति से लगाता है, वह इन्द्रधरणेन्द्र आदि की पदवी को पाता है। जिनेन्द्र भक्ति एवं गंधोदक लगाने का फल मैना सुन्दरी ने पाया था 'श्री सिद्धचक्र का पाठ, करो दिन आठ, ठाठ से प्राणी। फल पायो मैना रानी॥' 'जैसे मंत्रनिमित्तकरि जलादिकविषै रोगादिक दूरि करने की शक्ति हो है।' 9 सुन्दर पुष्प सुगन्धित जल की वर्षा"मन्दार-सुन्दर-नमेल-सुपारिजात, सन्तानकादिकुसुमोत्करवृष्टिरुद्धा। गन्धोद-बिन्दु-शुभ-मन्द-मरुत्-प्रपाता, दिव्या दिवः पतति ते वचसां तति।"10 अर्थ-हे भगवन्! आपके समवशरण में जब देवगण आकाश से मन्दार, सुन्दर नमेरू, पारिजात सन्तानक आदि, दिव्य वृक्षों के सुन्दर पुष्प और सुगंधित जल (गंधोदक) की वर्षा करते हैं, तब मन्द-मन्द पवन के झोकों से हिलोर खाते वे ऐसे भव्य प्रतीत होते हैं, मानो आपके श्रीमुख से वचनरूपी दिव्य पुष्प ही बरस रहे हों। यह पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य का वर्णन है। आजकल लोग 13 पंथ, 20 पंथ तथा तारण पंथ आदि में ही उलझ गए। जबकि शास्त्रों में पंथों का नहीं परम्परा से आए हुए जिनागम का वर्णन है। शास्त्र प्रारम्भ करने के पहले 'परम्पराचार्यगुरवे नमः' कहते हैं। इसका मतलब यह है जो गुरू परम्परा से ज्ञान आ रहा है वही हमारे लिए आगम चक्षु है। जिसे परम्परा का भी ज्ञान नहीं उसे आचार्यों ने इस प्रकार कहा है "स्वजातिपूर्वजानांतु यो न जानाति सम्भवम्। स भवेत् पुंश्चलीपुत्रसदृशः पित्रवेदकः।।"11 अपने पूर्वजों के भाषा और संस्कृति विषय में जो विद्वान् जानकारी नहीं रखता वह उस कुलटा पुत्र के समान है, जिसे पिता के विषय में पता नहीं। अर्थात् अतीत ही वर्तमान का सांस्कृतिक आधार अर्हत् वचन, 24 (1), 2012Page Navigation
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