Book Title: Arhat Vachan 2000 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 13
________________ के दिन राजस्थान के माधोराजपुरा (अतिशय क्षेत्र पद्मपुरा के निकट) ग्राम में आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के प्रथम पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज के कर कमलों से आर्यिका दीक्षा धारण कर "ज्ञानमती" नाम प्राप्त किया। नाम के साथ - साथ गुरुदेव के द्वारा एक लघु सम्बोधन मिला कि "ज्ञानमती। तुम अपने नाम का सदैव ध्यान रखना।" गुरुभक्ति से लेखनी का प्रारंभीकरण - . ऐसा लगता है कि गुरु का वह आशीर्वाद एवं सम्बोधन ही इनके जीवन में ज्ञान का भंडार भरने में अतिशयकारी संबल बन गया और अपनी लघुवय में ही इन्होंने पहले अपनी शिष्याओं को व्याकरण, सिद्धान्त, न्याय आदि ग्रन्थ पढ़ा - पढ़ा कर अपने ज्ञान को परिमार्जित किया पुन: उस ज्ञान को जब प्रयोगात्मकरूप में प्रस्तुत किया तो इनकी कृतियाँ पढ़ - पढ़कर उच्चकोटि के विद्वान भी आश्चर्यचकित हो गये। ___ इनकी प्रथम शिष्या आर्यिका जिनमती माताजी थी, जिन्हें कु. प्रभावती के रूप में इन्होंने सन् 1955 में म्हसवड़ (महा.) से निकालकर ज्ञान के अमृत से समूलचूल अभिसिंचित किया था। उन्हें जब ये संस्कृत भाषा में धारावाहिक बोलना सिखाती थीं तो साक्षात् सरस्वती माता के समान इनकी प्रतिभा प्रतीत होती थी। इनकी साहित्यिक कृतियों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि इन्होंने अपना प्रथम लक्ष्य बनाया बैंक के फिक्स डिपॉजिट की तरह ज्ञान का कोठार भरना और उसके बाद समयानुसार उसका उपयोग करना। इसी लक्ष्य के कारण सन् 1955 से 1964 तक मात्र अध्ययन और अध्यापन में अपना समय व्यतीत किया पुन: सन् 1965 से उसका प्रयोगात्मक कार्य साहित्य सृजन के रूप में प्रारंभ हआ। इस मध्य आचार्य श्री शिवसागर महाराज के संघ में रहते हुए सन् 1959 के अजमेर (राज.) के चातुर्मास में आपने अपने दीक्षागुरु पूज्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज की एक स्तुति "उपजाति' छन्द में (10 श्लोकों में) बनाई। जिसमें व्याकरण, छन्द, अलंकार और कोष के पूर्ण उपयोग के साथ आचार्य श्री की कछ विशेषताओं का भी दिग्दर्शन है। जैसे पाँचवें श्लोक में वे कहती हैं - स्वाध्यायध्यानादिक्रियासु सक्त:, संसारभोगेषु विरक्तचित्तः।। बाह्यान्तरंग तप आचरन्यो, दुःखाभिभूतो न हि बाह्यक्लेशात्।। 5 ॥2 ___ इस छन्द के माध्यम से शिष्या को अपने गुरुदेव की शारीरिक दुःख की शहनशीलता कहानी याद आती प्रतीत होती है। कहते है कि आचार्य वीरसागर महाराज की पीठ में एक बार बहुत बड़ा "अदीठ का फोड़ा" हुआ था। उसका डॉक्टर ने बिना बेहोश किये आपरेशन किया किन्तु आचार्य श्री ज्ञान - ध्यान में इतना तन्मय हो गये कि असहनीय दर्द को भी अपने तत्वचिंतन के द्वारा सहन कर लिया था। इसीलिए उनकी स्तुति के उपर्युक्त शब्द बिल्कुल सार्थक प्रतीत होते हैं कि वे आचार्यदेव स्वाध्याय, ध्यान आदि क्रियाओं में पूर्ण अनुरक्त थे और सांसारिक विषयभोगों से पूर्ण विरक्त - वैरागी थे तथा बाह्य - आभ्यंतर तपस्या में लीन रहते हुए वे बाह्यक्लेशों और दु:खों से कभी दुःखी नहीं होते थे। ऐसे वीतरागी गुरु की शिष्या वास्तव में खुद को गौरवशाली अनुभव करती हैं और उसी पथ की अनुगामिनी बनती हुई ज्ञानमती माताजी की चारित्रिक दृढ़ता भी सचमुच में अनुकरणीय है। सन् 1964 तथा 1985 - 86 में उनकी रूग्णावस्था की कट्टरता उनकी ही ऐतिहासिक कृति "मेरी स्मृतियाँ "3 में दृष्टव्य है। अर्हत् वचन, अप्रैल 2000

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